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निबन्ध-निचय
वाली "तिलोयपण्णत्ति' भी बारहवीं शती के प्राचार्य सिद्धान्तचक्रवर्ती "माघनन्दी" तथा उनके शिष्य सिद्धान्तचक्रवर्ती "बालचन्द्र" की कृति है।
षट-खण्डागम में प्रथम खण्ड से लेकर पंचम खण्ड के दो भागों तक सूत्र दिए गए हैं। तृतीय भाग के प्रारम्भ में थोड़े से सूत्र आये हैं, शेष भाग वीरसेन की टीका से भरे हुए हैं। इसके बाद “महाबन्ध" प्रारम्भ होता है। महाबन्ध में भी सूत्र जैसी कोई वस्तु नहीं हैं, केवल टीकाकार वीरसेनसूरि ने इस बन्ध के विषय को भङ्गोपभङ्ग प्रस्तारों द्वारा पल्लवित करके महाबन्ध को एक खण्ड के रूप में तैयार किया है। इसके साथ पुष्पदन्त तथा भूतबलि का कोई सम्बन्ध नहीं है। इस स्थिति में वीरसेन स्वयं महाबन्ध को "भट्टारक भूतबलि की रचना” कहते हैं, यह आश्चर्यजनक है।
इन आगम-सूत्रों को ध्यानपूर्वक पढ़कर हमने यह निश्चय किया, कि ये सूत्र विक्रम की अष्टम शती से परवर्ती समय में बने हुए हैं। इनके भीतर अनेक ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो इनका अर्वाचीनत्व सिद्ध करते हैं। स्थविर धरसेन के सत्ता समय और खण्डों के रचनाकाल के बीच कम से कम ५०० वर्षों का अन्तर बताते हैं। इस दशा में "प्राचार्य धरसेन ने पुष्पदन्त और भूतब लि को गिरि नगर में “षट्-खण्डागम का ज्ञान दिया ।" यह मान्यता किस प्रकार सत्य हो सकती है, यह एक गम्भीर और विचारणीय प्रश्न उपस्थित होता है।
हमारी राय में षट्-खण्डगम के टीकाकार आचार्य वीरसेन स्वामी स्वयं रहस्यमय पुरुष प्रतीत होते हैं। इन्होंने अपनी टीकाओं में तथा इनकी अन्तिम प्रशस्तियों में अपने लिए जो विशेषण प्रयुक्त किये हैं, वे अवश्य विचारणीय हैं। "एक खण्ड की टीका में आप अपने को प्रसिद्ध सिद्धान्तों का सूर्य, समस्त वैयाकरणों का सिरताज, गुणों की खान. ताकिकों के चक्रवर्ती, प्रखरवादियों में सिंह समान बतलाते हैं ।" अन्तिम प्रशस्ति में भी आपने इन्हीं विशेषणों को प्राकृत भाषा में परिवर्तित करके प्रयुक्त किया है। इसके अतिरिक्त प्रशस्ति में आपने अपने को "छन्दःशास्त्र तथा
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