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निबन्ध-निचय
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में मास, पक्ष, तिथि, लग्न और लग्न कुण्डली स्थित ग्रहों की राशियाँ बताई हैं । इससे इतना जाना जा सकता है कि यह प्रशस्ति विक्रम की दशवीं शती अथवा उसके बाद की हो सकती है पहले की नहीं ।
आचार्य वीरसेन ने वेदना-खण्ड की टीका में दिगम्बर साधुयों के पाँच कुलों के नाम दिए हैं, वे ये हैं- “पंचस्तूप, गुहावासी, शालमूल, अशोकवाटक और खण्डकेसर ।" इसके साथ ही " गण" तथा " गच्छ" की व्याख्या देते हुए लिखा है - "तिपुरिस गणो" " तदुवरि गच्छो" अर्थात् तीन पुरुषों की परम्परा के समुदाय को “गण" कहते हैं । उसके ऊपर होता है उसे “गच्छ" कहते हैं । भट्टारकजी ने “कुल, गण और गच्छ" की यह व्याख्या किस ग्रन्थ के आधार से की है यह कहना कठिन है । धवला के अतिरिक्त अन्य किसी प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रन्थ में कुलों के इन नामों को हमने नहीं देखा, न " त्रिपुरुषकगरण' होता है - यह व्याख्या भी हमने कहीं पढ़ी | दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों की प्रशस्तियों में " नन्दिगरण, सेनगरण; देवगरण, सिंहगरण, देशीयगणादि" गणों के नाम मिलते हैं । परन्तु "त्रिपुरुषकगण" होता है ऐसा कहीं भी लेख नहीं मिलता । न "गरणों" के ऊपर "गच्छ" होते हैं, यह बात देखने में आई । प्रत्युत गरण शब्द ही प्राचीनकाल से साधु- समुदाय के अर्थ में प्रचलित था । " गच्छ" शब्द तो बाद में प्रचलित हुआ है । जहाँ तक हमने देखा है, साधु-समुदाय के अर्थ में " गच्छ" शब्द ग्यारहवीं तथा बारहवीं शती के ग्रन्थों में तथा शिलालेखों में साधु-समुदाय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ दृष्टिगोचर होता है । तब भट्टारक वीरसेन गणों के ऊपर गच्छ कहते हैं । इसका क्या वास्तविक अर्थ है, सो विद्वान् विचार करें । हमारी राय में तो दिगम्बर तथा श्वेताम्बर जैन परम्पराओं में सर्वोपरि संघ होता है और संघ के छोटे विभाग “गरण" होते हैं । गणों के विभागों को "गच्छ” कहते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में छठी, सातवीं शताब्दी से "गच्छ" शब्द साधु-समुदाय के अर्थ में प्रचलित हुआ है। तब दिगम्बर परम्परा में तो इसके बहुत पीछे ग्यारहवीं, बारहवीं शती से “गणों" में से “गच्छों" की उत्पत्ति हुई है । इस दशा में भट्टारकजी वीरसेन का उक्त कुलगण- गच्छों का निरूपण एक रहस्यपूर्ण समस्या बन जाती है ।
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