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________________ निबन्ध-निचयः . : २६३ बापजी महाराज को उक्त निवेदन करने की प्रार्थना की। कुछ समय तक हमने दो के बीच परस्पर विचारों का आदान-प्रदान होने के बाद पूज्यपाद बोले-ठीक है ! पर्युषणा तक में कुछ हो जाय तो बहुत अच्छा 'तहत्ति' कह कर मैं उनसे जुदा पड़ा । प्रथम भाद्रपद शुदि १२ की शाम को जब मैंने वन्दना कर प्रत्याख्यान मांगा तब पूज्यपाद ने पूछा-कौन ? मैंने कहा 'कल्याणविजय' इन्होंने कहा'कल्याणविजयजी' उस विषय में-मेरे कहने योग्य जो हो उसे लिख रखना। "महावीर स्वामी के जन्मवाचन-प्रसंग पर मैं व्याख्यान की पाट पर बैठता हूँ उस समय उसे सुना दूगा” । मैंने 'तहत्ति' कहकर आभार माना। दूसरे ही दिन पूज्यपाद के नाम से जाहिर करने का निवेदन तैयार किया। "श्रेयांसि बहुविघ्नानि" इस कथनानुसार अच्छे कार्य विघ्नबहुल तो होते ही हैं। मैंने इस कार्य सम्बन्धी गुप्तता नहीं रखी थी, न गुप्तता रखने के संयोग ही थे। पूज्य आचार्य की श्रवणेन्द्रिय बहुत ही कमजोर हो गई थी। बात कुछ भी हो, जोरों से कहने पर ही आप सुनते थे। “खंडवपाली'' जो आपका टाइमकीपर था और हर समय समीपवर्ती रहता था, आपको कही हुई बात सर्वप्रथम सुनता था और उसमे वह बात “पश्चात्कृत" के पास जाती। मानों ये दोनों रामचन्द्रसूरि के एजेन्ट थे , मैं बापजी महाराज को बहका न हूँ इसके लिये दोनों नियुक्त थे। हमारी भावना समाधान कराने की अवश्य थी, परन्तु उनके मन का समाधान कायम रख कर । दुर्जनों की उल्टी-सुल्टी बातों से डांवाडोल होकर उनका मन पार्तध्यान में पड़े ऐसो परिस्थिति को दूर रखने का हमारा ध्येय था। हमारे कार्य में विघ्नकारक दो मनुष्य थे, इसलिये हमने पहले ही उनको सूचना कर दी थी कि मैं पूज्य बापजी महाराज की जन्म-शती के प्रसंग पर उनकी तरफ से एक निवेदन बाहर पड़वाना चाहता हूँ। खंडकपाली ने निवेदन पढ़कर कहा-"ठीक है, परन्तु मुझे नहीं लगता कि वे ऐसा वक्तव्य बाहर पाड़ें। पश्चात्कृत ने वक्तव्य पढ़कर कहा-साहब यह तो उल्टा होता है। मैंने कहा-तुम और तुम्हारे गुरु दो ही गीतार्थ की पूँछड़ी हो जो सच्चे भूठे को समझते हो। दूसरा कोई समझने वाला रहा ही नहीं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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