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________________ निबन्ध - मिचय हुए गल्त चीले का बदलना भी विचारणीय बन जाता है । गलत चीज को भी गलत के रूप में के लिए तैयार नहीं होता । परन्तु चलाते जाना यह भी कभी हानिकारक हो जाता है । न समझ ले तब तक सत्य प्रवृत्ति को सं० १९९३ के पर्युषणा - प्रसंग पर अनेक प्राचार्य अपनी चलती परम्परा से हटकर तृतीया की वृद्धिकारक श्री सागरजी की मान्यता की तरफ भुके । इसका यही कारण था कि प्राचीन भूल का परिमार्जन किसी ने नहीं किया था । सं० १९६३ के भाद्रपद शुदि ५ को वृद्धि थी । परन्तु पर्युषणा तिथि भा० शुदि ६ की होने से मतभेद को अवकाश नहीं था, पर सागरानन्दसूरिजी जिन्होंने सं० १९५२ में भाद्रपद शु० चतुर्थी के क्षय में तृतीया का क्षय मानकर वार्षिक पर्व तपागच्छ की परम्परा से विरुद्ध होकर भाद्रपद शु० ३ को किया था । : २६१ जब तक समाज वह उसे छोड़ने सदा उसी रूप में सं० १९९३ में किसी ने तृतीया दो मानी, किसी ने चतुर्थी दो मानी पर सांवत्सरिक पर्व भाद्रपद शुदि प्रथम पंचमी रविवार को किया । इसी प्रकार सं० १९९४ को भाद्रपद शुदि प्रथम पंचमी गुरुवार को वार्षिक पर्व किया तब हमारे पक्ष ने तथा खरतर गच्छ ने भा० शु० ४ बुधवार को वार्षिक पर्व मनाया था । उस समय हमें लगा कि पूर्णिमा अमावस्या की वृद्धि में त्रयोदशी की वृद्धि और उनके क्षय में त्रयोदशी का क्षय करने की जो गलत परम्परा लगभग १०० वर्षों से चली है उसके परिणामस्वरूप ही भा० शुक्ल ५ के क्षय वृद्धि में तृतीया की क्षय वृद्धि करने की सागरजी को कल्पना सूझी है । अतः अब मूल भूल को सुधारना आवश्यक है, यह निर्णय कर हमने मूल चण्डु पंचाँग में हो उसी मुजब तिथि का क्षय- वृद्धि मानने का निर्णय किया और उसी प्रकार भींतियें । जैन- तिथि पत्रकों में छपवाने का जारी किया । यह बात हमने लम्बी छानबीन के बाद प्रचलित की थी । जोधपुर दरबार के पुस्तक प्रकाश में रहे हुए १६०१ से १८०० तक में बने हुए तमाम पंचांगों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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