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________________ २६० : निबन्ध-निचय नीतिसूरि के शिष्य उनको रास्ते चढ़ने नहीं देंगे। सचमुच हो वृद्ध प्राचार्य श्री की वाणी सच्ची हुई। तीसरे दिन मैं लुहार की पोल के उपाश्रय में श्री नीतिसूरिजी के पास गया, पर इस समय उस भले प्राचार्य के मुख पर प्रसन्नता नहीं थी। वन्दनादि अनन्तर पूछा-''साहिबजी ! कुछ निर्णय हुया ?'' उत्तर मिला "निर्णय जो होना था वह गतवर्ष हो गया था। अब कोई नया निर्णय होने के संयोग ज्ञात नहीं होते।" ये अन्तिम शब्द उनके मुख से निकले तब मुझे कुछ ग्लानि-सूचक ध्वनि लगी। मैंने कहा-इसमें निराशा जैसी कोई वस्तु न होनी चाहिए। जो भावी होता है, वह होकर ही रहता है। मैं क्षणभर रुका फिर विदा हुआ। चर्चा के सिंहावलोकन में दी जा सकें ऐसी अनेक घटनाएँ हैं, परन्तु उन सर्व का संग्रह कर अवलोकन को विस्तृत करना बेकार है। जो महत्त्वपूर्ण और अद्यावधि अप्रकाशित बातें थीं उनमें से कतिपय आवश्यक बातों का ऊपर निर्देश कर दिया है। हमारा उद्देश्य तब और अब (२) १. सं० १६०० के आसपास में देवसूरि गच्छ के श्रीपूज्यों और यतियों ने जो तिथि-विषयक परम्पराएँ प्रचलित की थी उनको तपागच्छ पालता था। पूर्णिमा के क्षय-वृद्धि प्रसंग में त्रयोदशी का क्षय-वृद्धि करने की रीति वास्तव में गलत थी तथापि श्रीपूज्य और यतियों के प्राबल्यकाल में प्रचलित हुई कतिपय रीतियों को पालने के लिए हमारी संविग्न शाखा को भी बाध्य होना पड़ा था और एक बार कोई भी वस्तु व्यवहार में प्रविष्ट होने के बाद वह खरी है या खोटी इसकी कोई परीक्षा नहीं करता। हमारे प्रगुरुनों, गुरुत्रों और हमने किसी भी परम्परा को एक रीति रूढ़ि के रूप में भी पालन किया कि वह "गीतार्थाचरणा" हो गई। यह तिथि-विषयक रूढ़ मान्यता खोटी होने का सर्वप्रथम श्री विजयदानसूरिजी महाराज ने जाहिर किया था, परन्तु उन्होंने भी इस चीले को छोड़ने का साहस नहीं किया। कारण कि एकरूढ़ और सर्वमान्य बने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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