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निबन्ध-निचय
: २५६
मैं भी बैठ गया और प्रसंग आते पर्युषणाराधन के सम्बन्ध में बात निकाली । आसपास की बहुत-सी अन्य बातें भी हुई । अन्त में मैंने १९८६ की साल में उनकी तरफ से छपकर बाहर पड़ी हुई एक पुस्तिका की तरफ उनका ध्यान खींचकर कहा-"नवासी में आपने भाद्रपद शुदि ५ का क्षय माना था तो इस साल में भाद्रपद शुदि ५ की वृद्धि मानने में क्या आपत्ति है ?
श्री नीतिसूरि ने कहा-"१९८६ में हमने भा० शु० ५ का क्षय नहीं माना था, किन्तु दूसरे पंचांग के आधार से भाद्रपद शु० ६ का क्षय माना था।" __मैंने कहा- भले ही आपने ६ का क्षय किया होगा तो इस वर्ष में भी अन्य पंचांगों में ६ की वृद्धि भी है। वैसे आप भी उन पंचांगों के प्राधार से ६ की वृद्धि मानकर चतुर्थी के दिन पर्व करें, इसमें हमको कोई आपत्ति नहीं।"
सूरिजी ने विचार करके कहा-"हाँ ऐसा करें तब तो बात बैठ सकती है।"
मैंने कहा- पापको जिस प्रकार ठीक लगे वही कहिये, ताकि मैं पूज्य श्री सिद्धिसूरिजी महाराज को सूचित करूँ ।"
सूरिजी ने कहा-कल्याणविजयजी ! ६ की वृद्धि करके चतुर्थी कायम रखने की बात ही हमको समाधानकारक लगती है। पर इसका निश्चित उत्तर मैं आज नहीं दे सकता।"
मैंने पूछा-"निश्चित उत्तर के लिए मैं कब पाऊँ ?' श्री नीतिसूरिजी ने कहा-"निश्चित उत्तर मैं परसों दे सकंगा।"
मैं खड़ा हुआ और बोला-"तब मैं परसों आऊँगा" कहकर मत्थएण वंदामि कर विद्याशाला पहुँचा। पूज्य भाचार्य श्रीजी को सब वृत्तान्त कहा। पूज्य बापजी ने कहा- "हमको कुछ होने की आशा नहीं लगती,
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