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________________ २५८ : निबन्ध-निचय प्राचार्य के उक्त उद्गार को सुनके मुझे आश्चर्य हुआ और उनके जाने के बाद पूज्य बावजी महाराज को इस भावुकता का कारण पूछा और उत्तर में वापजी महाराज ने इस विषय का इतिहास सुनाया । श्री नीतिसूरिजी की पूज्य बापजी को तरफ की सद्भावना जानने के बाद मुझे लगा कि यदि श्री नीतिसूरिजी महाराज और हमारे बीच कुछ समझौता हो जाय तो ग्रहमदाबाद में तो प्रायः तिथि -विषयक समाधान हो जाय । ऐसा विचार करके मैंने पूज्य आचार्य महाराज की सलाह ली तो आपने कहा - नीतिसूरि का अपनी तरफ सद्भाव है इसमें शक नहीं, पर तिथि चर्चा के विषय में ये कुछ कर नहीं सकेंगे। मुझे नहीं लगता कि इनके शिष्य इनको कुछ भी करने दें। मैंने कहा - ' आपकी आज्ञा हो तो मैं इनको मिलूँ ? यदि कुछ होगा तो ठीक अन्यथा अपना कुछ जाता तो नहीं ।' पूज्य प्राचार्य श्रीजी ने मुझे लुहार की पोल में श्री नीतिसूरिजी के पास जाने की आज्ञा दी। मैंने पूछा- किस प्रकार का समाधान आपको स्वीकार्य होगा ? उत्तर मिला - " तुमको जो योग्य लगे वैसा करना " मैंने कहा—नीतिसूरिजी दूसरे पंचांग के आधार से भाद्रपद सुदि ६ की वृद्धि मानकर बुधवार को सांवत्सरी करने का कबूल करें तो अपने कबूल करना या नहीं ? आपने कहा - " अपने दो पंचमियां मानें और वेदो षष्ठी मानें इसमें कुछ फरक नहीं पड़ता, अपने तो प्रदयिक चतुर्थी और बुधवार आना चाहिए ।" पूज्य आचार्य के इस खुलासा के बाद मैंने एक दूसरा प्रश्न पूछा - यदि श्री नीतिसूरिजी पूर्णिमा की क्षयवृद्धि में त्रयोदशी का क्षय वृद्धि करवाने की अपने पास स्वीकृति मांगें तो अपने क्या करना ? वैसी स्वीकृति देकर भी समाधान करना या आ जाना ? पूज्य आचार्य देव ने कहा - "यदि सांवत्सरिक पर्व के सम्बन्ध में एकमत्य हो जाता हो तो दूसरे सामान्य मतभेदों को महत्त्व न देना चाहिए ।" पूज्य गुरुदेव के पास ऊपर लिखित बातों का खुलासा लेकर तीसरे दिन मैं लुहार की पोल विराजते श्री विजयनीतिसूरिजी के पास गया । वे धर्मशाला के पिछले भाग में अकेले बैठे थे वन्दनादि करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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