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निबन्ध-निचय
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५. सं० २०१२ की बात है, हमको अधिकार-पत्र देने वाले पक्ष के साधुओं की एक पार्टी की तरफ से हमारे ऊपर भलामन पत्र आया कि "प्रतिपक्ष यदि समाधान की भावना वाला हो तो अपने पक्ष को भी समाधान का कोई मार्ग सोच रखना जरूरी है।"
ऐसे पत्र लिखने वालों को हमारे मूल उद्देश्य को खबर न थी, इसीलिये वे हमको समाधान के लिए अनुकूल बनाते थे, अन्यथा हमारा तो मूल से उद्देश्य यही था कि जिस तिथि-क्षय-वृद्धि-विषयक भूल के परिणामस्वरूप वार्षिक पर्व तक भूल पहुँची है उस मूल भूल को खुल्ली पाड़ने से ही सांवत्सरिक पर्वविषयक भूल का सुधारा हो सकेगा। पिछले १०० वर्ष से देवसूरि गच्छ के यतियों और श्रीपूज्यों ने पूर्णिमा के क्षय-वृद्धि में त्रयोदशी का क्षय-वृद्धि करने का मार्ग निकाला है और इस मार्ग को प्रामाणिक मानकर ही पंचमी के क्षय-वृद्धि में तृतीया का क्षय-वृद्धि करने की कल्पना मूर्तिमती हुई है, इसलिए मूल भूल को पकड़ने से ही वार्षिक पर्व में नयी चुसी हुई भूल सुधर सकेगी और जब इस विषय की चर्चा निपटारे की परिस्थिति में आयेगो तब यदि १०० वर्षों की भूल को चलाने के बदले में सांवत्सरिक भूल सुधरती होगी तो उन पुरानी भूलों को चलाने की हम आनाकानी नहीं करेंगे। १९६३-६४ में हमने इस वस्तु को समझा कर ही अपने पक्ष को चर्चा के मोर्चे पर खड़ा किया था।
६. १६६४ की साल में श्री विजयनोतिसूरिजी महाराज अहमदाबाद चातुर्मास्यार्थ आये तब नगर-प्रवेश के दिन आप विद्याशाला में आकर पूज्य विजयसिद्धिसूरिजी को वन्दन करके आगे गये थे। उस समय के उनके हृदयोद्गारों को सुनने से मुझे नवाई लगी, उन्होंने वन्दन करने के बाद कहा
"मेरे पर आपका बड़ा उपकार है, मैं इनके नाम की नित्य माला गिनता हूँ।"
सिद्धिसूरि की विरोधी पार्टी को दृढ़ बनाने के लिए पाटन का नियत चातुर्मास्य रद्द करके शिष्यपरिवार के साथ अहमदाबाद पाने वाले
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