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निबन्ध-निचय
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मान्यता को सत्य ठहराया था। परन्तु इस फैसले को सागरानन्दसूरिजी ने नामन्जूर किया। सागरजी के नामन्जूर करने पर उनकी पार्टी के अग्रगण्य प्राचार्य महाराजों ने कहा-"जिन्होंने शास्त्रार्थ किया है वे जाने । हमारा इस निर्णय के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।"
पंच का निर्णय छपकर बाहर पड़ने पर हमने श्री रामचन्द्रसूरिजी का उत्तर ध्यान से पढ़ा तो ज्ञात हुआ कि हमारे लेख का एक भी शब्द उन्होंने छोड़ा नहीं था। केवल हमारे लेख को उन्होंने अपनी भाषा में परिवर्तित किया था। श्री रामचन्द्रसूरिजी ने अपने उत्तर में "हमारे पट्टक को श्री दानसूरि ज्ञान-मंदिर का पट्टक लिखा था।" इसका कारण शायद यह होगा कि “इस विषय में श्री रामचन्द्रसूरिजी ने कल्याण विजय की सहायता ली है ऐसी किसी को शंका न हो।" कुछ भी हो, परन्तु हमारे पक्ष की सत्यता साबित हुई इतना ही हमें तो संतोषप्रद हुआ।
४. जहां तक हमें स्मरण है १६६६ की साल का चातुर्मास्य बदला उस समय हमारे आराध्य आचार्यप्रवर श्री सिद्धिसूरीश्वरजी के श्रीमुख से इनके नादान भक्तों ने जाहिर करवाया था कि “वह पन्ना अानन्दविमलसरिजी का है ऐसा कोई भी साबित कर देगा तो हम उसके अनुसार चलने को तैयार हैं।" जिस पन्ने की हम ऊपर चर्चा कर आये हैं उसी पन्ने के सम्बन्ध में पूज्य आचार्य की उक्त जाहिरात थी और बिल्कुल सच्ची बात थी। परन्तु उसे सच्चो करके बताने वाला उस समय उनके पास कोई मनुष्य न था। इस अवसर का लाभ लेके श्री हर्षसूरिजी के शिष्य कल्याणसरि उछल पड़े और "वह पन्ना प्रानन्दविमलसूरि का ही है यह सिद्ध करने को मैं तैयार हूं' यह नोटिस पढ़कर मुझे बड़ा दुःख हुआ।
कल्याणसूरि पर उतनी नाराजगी नहीं हुई, जितनी कि हमारे पक्ष के उन नादान मित्रों पर हुई । जब यह पाना नकली है यह वस्तु सिद्ध करने की किसी में शक्ति न थी, तब इस विषय में पूज्य वृद्ध आचार्य को आगे करने की क्या जरूरत थी? परन्तु हो क्या सकता था, हम दो सौ माईल के अन्तर पर थे। मन मसोस कर रह गये और वृद्ध प्राचार्य को मौन
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