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. २६ : तिथि- चर्चा पर सिंहावलोकन
१. सांवत्सरिक पर्व की आराधना में मतभेद खड़ा करने वाले श्री सागरानन्दसूरिजी थे, यह मैं ही नहीं लगभग सारा जैन समाज मानता है । सं० १९५२ तथा १९८६ में सागरजी और उनके शिष्यों ने भा० शु० ३ का सांवत्सरिक पर्व किया था, यह सब जानते हैं ।
__सं० १६६३ में और १९६४ में (गुजराती १६६२-१९६३ में) भाद्रपद शुक्ल ५ की वृद्धि में सागरजी अकेले ही जुदा पड़ते। परन्तु इस समय इनको श्री नेमिसूरिजी, श्री वल्लभसूरिजी, श्री नीतिसूरिजी प्रादि सहायक मिल जाने से श्री सागरजी का साथ बढ़ गया। तीन-तीन बार पंचमी के क्षय में चतुर्थी को आगे-पीछे न करने वाले हमारे पूज्य मुरब्बियों ने पंचमी की वृद्धि में तृतीया अथवा चतुर्थी की वृद्धि करके तपागच्छ के श्रमण-संघ को दो विभागों में बांट लिया। यह चक्र कैसे फिरा इसका भी इतिहास है, परन्तु गत वस्तु को आज ताजा करने की आवश्यकता नहीं । १६६४ के वर्ष में यह चर्चा उग्र हो उठी, आमने-सामने शास्त्रार्थ की चेलेंजें दी गई। किसी भी समुदाय के प्रतिनिधित्व के विना ही श्री सागरानन्दसूरिजी अपनी जवाबदारी से शास्त्रार्थ के लिये तैयार हुए। श्री विजयसिद्धिसूरिजी तथा श्री विजयप्रेमसूरिजी की तरफ से तिथि-चर्चा करने के अधिकार-पत्र लिखकर मुझे सुपुर्द किये गये थे। इतना होने पर भी उस प्रसंग पर प्रचार के सिवा अधिक कुछ नहीं हुआ।
२. चातुर्मास्य के बाद हमने अहमदाबाद से मारवाड़ की तरफ विहार किया। तिथि चर्चा वर्षों तक चलती रही। मारवाड़ में जाने के
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