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निबन्ध-निचय
: २५१
प्रचालित रूढ़ियों तथा निर्मूलक गुरु-परम्पराओं को जैन-संस्कृति में सम्मिलित किया जाय तो धीरे-धीरे खरी संस्कृति इन कुपरम्पराओं के नीचे लुप्त ही हो जायेगी, जिस प्रकार वस्त्र पर लगे हुए मैल के स्तर क्षार और निर्मल जल के द्वारा दूर हटते हैं और वस्त्र शुद्ध होता है, इसी प्रकार आगमिक तथा गीतार्थाचरित मार्गों में घुसी हुई निरर्थक परम्परागों को दूर हटाने से ही जैन-संस्कृति अपने विशुद्ध स्वरूप में रह सकती है।" हमारी इस मान्यता के साथ श्री पारख तथा इनके अनुशासनवादी मुरब्बी सहमत नहीं हो सकते हैं तो उनकी मर्जी की बात है। कोई भी मनुष्य अपनी शुद्ध बुद्धि से अपने सच्चे मन्तव्य पर दृढ़ रहे और उसका प्रतिपादन करे, उसे बुरा कहना सभ्य मनुष्य का काम नहीं ।
अनागमिक और शठ-अगीतार्थाचरित परम्पराओं को खुल्ला न पाड़ने से आज जैन-धर्म, इसका उपदेश कई बातो में आगमिक न रहकर पौराणिक बन गया है। यही नहीं पर कई मनस्वी मुनियों ने तो अपनी पौराणिक मान्यताओं को प्रामाणिक साबित करने के लिए नकली ग्रन्थ तक बना डाले हैं, जो "कृत्रिम-कृतियां' इस शीर्षक के नीचे दिए हुए वर्णनों से पाठकगण समझ सकेंगे।
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