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निबन्ध-निचय
ऐसी सैकड़ों पुस्तकें छपकर जैनों के हाथ में गई हैं। उनमें रही हुई अल्पश्रुत-कर्ताओं को भूलें, अल्पज्ञ और अनुभवहीन सम्पादकों की भूलें और प्रेस की भूलें गिनकर इकट्ठी कर दी जायें तो उनकी संख्या हजारों के ऊपर चली जायेगी। इन साहित्यिक भूलों के परिणामस्वरूप जैन संस्कृति पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा है। इसका शासन-संस्था के अनुशासनबादियों ने कभी विचार किया है ?
(४) उपर्युक्त साहित्यिक भूलों से भी अधिक भयङ्कर घटना तो यह घटी है कि हमारे श्वेताम्बर साहित्य में कुछ ऐसे ग्रन्थ चल पड़े हैं, जो जैन संस्कृति के लिए बहुत ही अहितकर हैं। इनमें कुछ ग्रन्थ तो कल्पित उपन्यासों की तरह गढ़े हुए हैं, तब कतिपय ग्रन्थ अर्वाचीन और मध्यकालीन शिथिलाचारी साधुओं को कृतियों होने पर भी प्राचीन तथा प्राचीनतर प्रामाणिक प्राचार्यों के नाम पर चढ़े हुए हैं। ऐसे अनेक ग्रन्थों का हमने पता लगाया है, इन कृत्रिम ग्रन्थों का प्रभाव इतना गहरा पड़ा है कि विक्रम की १०वीं शती से २०वीं शती तक की जैन संस्कृति का कायापलट-सा हो गया है, जिससे आगमिक और अशठगीतार्थाचरित मार्गों और शिथिलाचारी शठगीतार्थों तथा अल्पज्ञ साधुओं द्वारा प्रचारित परम्पराओं का पृथक्करण करना कठिन हो गया है। क्या शासन-संस्था के अनुशासनवादी और श्री पारख इस अन्धेरगर्दी पर विचार कर सकते हैं ?
श्री पारख के कथन का ध्वनि हमें तो यही मालूम हुआ कि 'शास्त्र का संशोधन भले ही हो पर जो परम्पराएँ आज तक चली आ रही हैं, उनका खण्डन नहीं होना चाहिए।' हम कहना चाहते हैं कि श्री पारख तथा इनके शासन-संस्था के अनुशासनवादी "जैन संस्कृति किसे कहते हैं यह पहले समझ लेते ।” “हम स्वयं तो जैन-आगम और अशठ-गीतार्थाचरित मार्गों में व्यवस्थित धार्मिक परम्परा को हो जैन-संस्कृति समझते हैं और इसका रक्षण करना जैन मात्र का कर्त्तव्य मानते हैं। इस संस्कृति का उच्छेद करने वाला जैन नहीं, अजैन कहलाने योग्य है। यदि अनागमिक, अगीतार्थ-शठाचरित परम्परामों तथा अल्पज्ञ साधुओं, यतियों द्वारा
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