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निबध-निचय
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गाथा के आधार पर पांच दानों को अर्हत्प्रणीत कहना अनभिज्ञता का सूचक है।
(८) जीवदया : उसी परिशिष्ट के १६वें फिकरे में लेखकों ने "जीवदया" यह शीर्षक देकर अनुकम्पा से जीवदया को पृथक् किया है। अनुकम्पा-दान के पात्र लेखको ने मनुष्यों को बताया है, तब जीवदया के पात्र पशु, पंखियों को। लेखकों के इस पृथक्करण का प्राधार शास्त्र अथवा प्रामाणिक परम्परा तो नहीं है। अत: इसका आधार इनकी कल्पना ही हो सकती है।
दान-क्षेत्रों की संख्या प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने सात होना लिखा है-जिनप्रतिमा; जिनचैत्य; ज्ञान, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, ये सात स्थान जैन समाज में सात क्षेत्र के नाम से पहिचाने जाते हैं । बारहवीं शताब्दी के प्राचार्य जिनचन्द्रसूरिजी ने साधारण, पौषधशाला, जीवदया, इन तीन को बढ़ाकर दानक्षेत्रों को १० बनाया। परन्तु : रूपरेखा" के लेखकों ने तो एक-एक स्थान को अनेक विभागों में बांटकर दान के स्थानक १७ बना दिए। जिन-शासन संस्था के नियमों के शाश्वतपन की बातें करने वाले लेखकों को कोई पूछेगा, कि आपने दानक्षेत्रों की यह लम्बी सूची किस शास्त्र अथवा प्रामाणिक परम्परा के आधार पर बनाई है। हम तो निश्चय रूप से मानते हैं, कि ये सभी लेखकों की फलद्रूप कल्पनाओं के नमूने हैं।
(8) संचालन का अधिकारी : इस शीर्षक के नीचे के विवेचन में लेखकों ने पंचाशक की दो गाथाएँ दी हैं और उनका स्वाभिमत अपूर्ण अर्थ लिखकर बताया है, कि "इन गुणों से युक्त, श्रद्धावान्, गृहस्थ चैत्यादि कार्य का अधिकारी है।" उक्त गाथाओं में वास्तव में "जिनचैत्य बनाने का अधिकारी कैसा होना चाहिए, इस विषय का प्राचार्यश्री ने वर्णन दिया है, न कि चैत्य-द्रव्यादि की
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