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________________ २४४ : निबन्ध - निचय अनेक बातें उपस्थित होती थीं और उन पर वाद-विवाद होकर सर्व सम्मति से अथवा बहुमति से प्रस्ताव मान्य किये जाते थे । लेखकों ने चुनाव की बात को विदेशियों की कहकर जैन शास्त्रों से अपनी अनभिज्ञता मात्र प्रकट की है । (७) अनुकम्पा : संघ के बंधारण की रूपरेखा के १५वें फिकरे में दिए गए “अनुकम्पा" इस शीर्षक के नीचे लेखक लिखते हैं- "जिनेश्वर प्ररणीत पाँच प्रकार के दानों में अनुकम्पा का समावेश है ।" ऊपर के अवतरण में लेखक अभय, सुपात्र, अनुकम्पा, उचित और कीर्ति दान इन पाँच दानों को अर्हत्प्रणीत मानते हैं, जो जैन शास्त्रविरुद्ध है । प्राचीन आगमों, प्रकरणों और विक्रम की दसवीं शताब्दी तक के चरित्रादि ग्रन्थों में केवल तीन दानों का ही प्रतिपादन मिलता है । वे तीन दान १ अभयदान, २ ज्ञानदान, ३ उपष्टम्भदान इन नामों से वरिणत हैं । अनुकम्पा दान का सर्वप्रथम उल्लेख प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी की "समराइच्चकहा" में मिलता है । उपर्युक्त तीन दानों का सविस्तार प्रतिपादन करने के बाद प्राचार्य हरिभद्रजी कहते हैं- "अनुकम्पा दान का जिनेश्वरों ने निषेध नहीं किया है" श्रर्थात् अनुकम्पा दान का न शास्त्र में विधान है, न उसका प्रतिषेध । इसका तात्पर्य यह हुआ कि आगमों में अनुकम्पादान की चर्चा ही नहीं है आचार्य हरिभद्रसूरि के उपर्युक्त उल्लेख के बाद लगभग तीन सौ वर्षों के पश्चात् अनुकम्पा दान को उपर्युक्त तीन दानों के समीप स्थान मिला और उचित तथा कीर्तिदान धार्मिक रूप में कब माने गये इसका तो कोई ग्राधार ही नहीं मिलता । अर्वाचीन प्रदेशिक ग्रन्थों में स्थान प्राप्त । "अभयं सुपत्तदाणं, अणुकम्पा उचिय कित्तिदारणाई | दुणिहिं मुक्खो भरियो, तिष्णि य भोगाइयं दिति ॥ " इस गाथा में पांच दानों का निरूपण मिलता है, परन्तु यह गाथा किस ग्रन्थ की है, इसका कोई पता नहीं मिलता। इस प्रकार की अर्वाचीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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