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________________ निबन्ध-निचय : २४३ मंगवाते थे। तब प्रायश्चित्तदाता श्रुतधर भी सांकेतिक भाषा में ही दोषों का प्रायश्चित्त लिखकर पत्र द्वारा मंगाने वाले आचार्य के पास भेजते हैं। इस रीति से लिए-दिए जाने वाले प्रायश्चित्त-व्यवहार को "आज्ञाव्यवहार" कहते थे। आचार्य अपने शिष्यादि को जिन अपराधों का जो प्रायश्चित्त देते उनको साथ में रहने वाले शिष्य प्रतःच्छकादि याद रखकर अपने शिष्यादि प्रायश्चित्ताथियों को प्रदान करें तो वह "धारणाव्यवहार" कहलाता है। जिस गच्छ में जो प्रायश्चित्त-विधान-पद्धति प्रचलित हो उसके अनुसार प्रायश्चित्त प्रदान करना उसका नाम “जीत-व्यवहार" है । इस प्रकार से पांच प्रकार के व्यवहारों का सम्बन्ध प्रायश्चित्त प्रदान से है। इन व्यवहारों में से “प्रागम-व्यवहार” पूर्वधर अधिकारियों के साथ कभी का विच्छिन्न हो चुका है। दूसरा, तीसरा और चौथा व्यवहार भी अाजकल बहुत ही कम व्यवहृत होता है। वर्तमान समय में बहुधा "जीतव्यवहार" प्रचलित है, जिसका यथार्थ रूप में व्यवहार करने वाले मध्यम तथा जघन्य गीतार्थ होते हैं, पर इस प्रकार के गीतार्थ भो अल्प संख्या में पाये जाते हैं। वर्तमान समय में "जीत" शब्द का “कर्त्तव्य" के अर्थ में भी प्रयोग हुआ दृष्टिगोचर होता है, परन्तु इस जीत का जीत-व्यवहार से कोई सम्बन्ध नहीं है। वर्तमान समय में कतिपय साधु अपनी गुरु-परम्पराओं को “जीत-व्यवहार" के नाम से निभाते हैं। वे आगमिक व्यवहारों से अनभिज्ञ हैं, यही समझना चाहिए। (६) शासन के प्रतिकूल तत्व . ऊपर के शीर्षक के नीचे मतदानपद्धति को विदेशीय पद्धति कहकर कोसते हैं और जैन शासन के लिए अहितकर मानते हैं। हमारी राय में लेखकों के दिमागों में विदेशीय अनेक बातों के विरुद्ध का जो भूसा भरा हुआ है उसी का यह एक अंश बाहर निकाला है, अन्यथा इस चर्चा का यहां प्रसंग ही क्या था। मतदान-प्रदान की पद्धति विदेशीय नहीं बल्कि भारतीय है। जैन-सूत्रों तथा जैनेतरों के साहित्य में ऐसी अनेक घटनाएँ उपलब्ध होती हैं कि जिनका निर्णय सर्वसम्मति से अथवा बहुमति से किया जाता था। संघसमवसरण, स्नानमह आदि प्रसंगों पर संघहित की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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