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निबन्ध-निचय
सम्बन्धी कक्षाओं का निरूपण कितना भ्रान्तिजनक है । विशेष ग्राश्चर्य की बात तो यह है कि लेखक शासन अथवा प्रवचन का अर्थ तो करते हैंसाधु साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुविध संघ और संचालकों की कक्षाओं में श्रावक-श्राविका रूप द्विविध संघ को कोई स्थान ही नहीं देते। इस स्थिति में शासन संस्था के संचालन में चतुर्विध संघ को अधिकारी मानने का क्या अर्थ होता है, इसका लेखक स्वयं विचार करें ।
(५) श्रीसंघ की कार्यपद्धति के आधार तत्त्व :
उपर्युक्त शीर्षक के नीचे लेखकों ने 'पांच व्यवहारों' की चर्चा की है, परन्तु नाम श्रागम, श्रुत, धाररणा और जीत चार लिखे हैं । मालूम होता है, तीसरा 'प्रज्ञाव्यवहार' उन्हें याद न होगा । इन पांच व्यवहारों को लेखक संघ की व्यवस्था के नियम और संचालन पद्धति के मुख्य तत्त्व मानते हैं ।' लेखकों के इस कथन को पढ़कर हमारे मन में यह निश्चय हो गया है कि पाँच व्यवहार किस चिड़िया का नाम है, यह उन्होंने समझा तक नहीं । सुनी सुनायी पंच-व्यवहार की बात को आगे करके संघ की व्यवस्था और उसके संचालन की बातें करने लगे हैं। इन पांच व्यवहारों को सामान्य स्वरूप भी समझ लिया होता तो प्रस्तुत प्रसंग पर इन व्यवहारों का उल्लेख तक नहीं करते, क्योंकि इन व्यवहारों का सम्बन्ध श्रमण-श्रमणियों के प्रायश्चित्त प्रदान के साथ है, अन्य किसी भी व्यवस्था, विधि-विधान या संचालन - पद्धति से नहीं । " केवली, मनःपर्याय-ज्ञानी, अवधि ज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर, दशपूर्ववर तथा नवपूर्वधर" श्रमण श्रमणियों की दोषापत्तियों का गुरुत्व लघुत्व अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से जानकर उस दोष की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त प्रदान करते थे, उसे " आगमव्यवहार" कहते थे । इसी को "प्रत्यक्ष व्यवहार" भी कहते थे । बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ सूत्र, पीठिका आदि के आधार से श्रमण श्रमणियों को जो प्रायश्चित दिया जाता है वह "श्रुतव्यवहार" कहलाता है ।
एक प्रायश्चित्तार्थी प्राचार्य अपने अपराध पदों को सांकेतिक भाषा में लिखकर अपने प्रगीतार्थ शिष्य द्वारा अन्य श्रुतधर आचार्य से प्राचश्चित्त
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