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निबन्ध-निचय
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इत्यादि कार्यों के लिए एक योग्य श्रमण नियुक्त होता था, जो “गरगावच्छेदक" नाम से पहिचाना जाता था ।
उपर्युक्त गरण-व्यवस्थापक का पाँच पुरुषों की नामावलि के साथ कभी -- कभी "गणी" तथा " गणधर " इन दो नामों से भी निर्देश होता है । "गणी" का अर्थ निशीथचूरिण में "इन्चार्ज अधिकारी" के रूप में किया गया है । आचार्य की अनुपस्थिति में वह " प्राचार्य " का काम बजाता था और उपाध्याय की अनुपस्थिति में "उपाध्याय" का का अर्थ कहीं प्राचार्य और कहीं उपाध्याय किया शब्द का तात्पर्य यहां गरणवच्छेदक-कृत श्रमणों की टुकड़ियों के नेता गीतार्थ श्रमण से हैं, न कि तीर्थङ्कर-दीक्षित मुख्य शिष्य गणधर से ।
।
इसी से "गरणी" शब्द
गया है । " गणधर "
उपर्युक्त श्रागमोक्त गरणव्यवस्था का दिग्दर्शन मात्र है । सर्वं गरणों का सम्मिलित समुदाय संघ कहा गया है । इससे समझना चाहिए कि गरणों की व्यवस्था ही संघ शासन व्यवस्था थी । संघ सम्बन्धी विशेष कामों के लिए ही संघ समवसरण होता था और उसमें विशेष कामों का खुलासा होता था, बाकी सब श्रमणगरण अपने-अपने गणाधिकारियों की शास्त्रीय व्यवस्थानुसार चलते थे। संघ के कार्यों में वृषभ, पन्न्यास आदि को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे । वृषभ उस साधु को कहते थे, जो शारीरिक बल वाला और कृतपरिश्रम होने के उपरान्त गीतार्थ होता । समुदाय के साधुओं के लिए वस्त्र - पात्रादि की प्राप्ति कराना और चातुर्मास्य योग्य क्षेत्र की प्रतिलेखना करना, ये वृषभ साधु के मुख्य काम होते थे । इसके अतिरिक्त उपर्युक्त गुणों के उपरान्त वृद्धावस्था वाला वृषभ श्रमणियों के विहार में भी उनका सहायक बना करता था । पंन्यास यह कोई अधिकारसूचक पद नहीं है, किन्तु व्यक्ति के पाण्डित्य का सूचक पद है । इस पदधारी में जैसी योग्यता होती, वैसे अधिकार पर वह नियुक्त कर लिया जाता था और उस हालत में वह अपने अधिकार - पद से ही सम्बोधित होता था, न कि पन्न्यासपद से ।
उपर्युक्त शास्त्रीय संघ- शासन की व्यवस्था का निरूपण पढ़कर विज्ञ पाठकगरण अच्छी तरह समझ सकेंगे कि लेखकों का शासन संचालन
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