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निबन्ध-निचय
देश-प्रदेशों में लोक-हितार्थ उपदेश करते हैं । तीर्थङ्कर स्वयं भी धर्म तथा तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया करते हैं और उनके उपदेश से जो वैराग्य प्राप्त कर उनके श्रमण संघ में दाखिल होना चाहते हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ श्रमण की प्रव्रज्या देकर श्रमण-श्रमणियों के प्रमुखत्व में श्रमण श्रमणीगण की व्यवस्था शिक्षा करने वाले स्थविरों तथा प्रतिनियों को सुपुर्द करते हैं और वे अभिनव श्रमण-श्रमणियों को ग्रहण, प्रासेवन नामक दो प्रकार की शिक्षा से ज्ञान तथा प्राचार में प्रवीण बनाते हैं, यही श्रमण संघ का संचालन है । तीर्थङ्कर इस संचालन में उपदेश प्रदान के अतिरिक्त कोई उत्तरदायित्त्व नहीं रखते । गणधरों के निर्वाण के बाद उनके उत्तराधिकारी प्राचार्य इसी क्रम से शासन संचालन करते हैं । श्रमण समुदाय के सामान्य कार्यों में हस्तक्षेप न कर केवल ग्रहण-शिक्षा में अर्थानुयोग प्रदान करते हैं और जैन प्रवचन के ऊपर होने वाले अन्य धर्म-शासकों के प्राक्षेपों-अाक्रमणों का सामना करने का उत्तरदायित्व रखते हैं। इन कार्यों का सुचारु रूप से संचालन हुआ करे, इसके लिए अपने सम्प्रदाय में से योग्य व्यक्तियों को भिन्नभिन्न कार्यों पर नियुक्त कर देते हैं । ऊपर कहा गया है कि प्राचार्य विद्यार्थी साधुओं को अर्थ का अनुयोग मात्र देते हैं । वे सूत्र-पाठ देने के लिए अन्य श्रमण को नियुक्त करते हैं, जो साधुनों को सूत्र पढ़ाता है और उपाध्याय कहलाता है । समुदाय के साधुओं को उनकी योग्यतानुसार कार्यों में नियुक्त करने के लिए एक योग्य बुद्धिमान् साधु नियुक्त होता था, जो गण के साधुओं को अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त करने और प्रमाद न करने का उपदेश दिया करता था। यह अधिकारी "प्रवर्ती" अथवा “प्रवर्तक" कहलाता था। साधुओं से प्रमादवश होने वाले अपराधों; राग-द्वेष से होने वाले मतभेदों और झगड़ों का निराकरण करने के लिए, एक गीतार्थ समभावी वृद्ध श्रमण नियुक्त किया जाता था, जो श्रमणों को प्रायश्चित-प्रदान और आपसी झगड़ों का न्याय देता था। यह पुरुष "स्थविर" अथवा "रत्नाधिक" नाम से सम्बोधित होता था। गण के साधुओं के गच्छ (टुकड़ियाँ) बनाकर भिन्न-भिन्न प्रदेशों में विहार कराना और टुकड़ियों में से साधुओं को इधर-उधर अन्यान्य टुकड़ियों में जुटाना
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