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: २४ : जैन संघ के बंधारण की रूपरेखा की अशास्त्रीयता
ले० ५० कल्याणविजय गरिण
कुछ दिन पहले यहां के धार्मिक अध्यापक ने हमें एक छोटी पुस्तिका दी, जिसका शीर्षक "जैन संघ के बंधारण की रूपरेखा" था। पुस्तिका को पढ़कर अपनी सम्मति प्रदान करने का भी अनुरोध किया। इस पर पुस्तिका को पढ़ने के उपरान्त हमें जो कुछ इसके सम्बन्ध में विचार स्फुरित हुए वे नीचे लिखे अनुसार हैं ।।
रूपरेखा की पुस्तिका पर लेखक का कोई नाम नहीं है, परन्तु प्रकाशक के “प्रामुख" के पढ़ने से ज्ञात हुआ कि इसके लेखक दो हैं। पहले एक साधुजी जो गणिपदधारी हैं और दूसरा गृहस्थ है जो पण्डित कहलाता है। लेखकों ने अपना नाम टाइटल पेज पर नहीं दिया इसका कारण तो वे ही जाने, परन्तु ऐसे उत्तरदायित्वपूर्ण लेख में लेखकों को अपने नाम अवश्य देने चाहिए थे।
लेखकों ने पीठबन्ध में ही "जैन शासन' अर्थात् “संघ" की व्यवस्था करने में भूल की है। क्योंकि जैन शासन का प्राथमिक सूत्र तत्त्वत्रयी है, जिसमें देव, गुरु और धर्म का समावेश होता है। देवतत्त्व में अरिहन्त
और सिद्ध, गुरु तत्त्व में प्राचार्य, उपाध्याय तथा श्रमणगण और धर्मतत्त्व में सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र सन्निविष्ट हैं। "जैनप्रवचन", "जैन-संघ" या "जैन-तीर्थ" सब तत्त्वत्रयी में समा जाते हैं । ज्ञानाचारादि पंचाचार (पांच प्राचार) आदि सभी बातें इसके प्रत्यंग मात्र हैं, मौलिक अंग नहीं।
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