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________________ २३२ : निबन्ध-निचय की इन गाथाओं में पूर्व ग्रन्थों की छायामात्र है । वर्तमान के साथ इनका खास सम्बन्ध नहीं है । तत्कालीन यतियों में भी "उग्रविहारी वर्ग होने की आपकी कल्पना निराधार है ।" अठारहवीं सदी में जहां तक मैं समझ सका हूँ यतियों में व्यापक रूप से शिथिलाचार फैल चुका था । यदि तब तक उग्रविहारी विद्यमान होते तो क्रियोद्वार कर उग्रविहार स्वीकार करने की पं० सत्यविजयजी आदि की कभी जरूरत नहीं पड़ती। यह सही है कि कितनेक यति सर्वथा पतित अवस्था को पहुँच चुके थे, तब एक वर्ग ऐसा भी था जो मूल गुणों को लिए हुए था । पर उग्रविहारी जैसी कोई चीज नहीं रही थी । अभी न तो हमारे पास उपाध्यायजी के ग्रन्थ हैं और न उतनी फुरसत हो है कि उन्हें मंगवाकर पढ़ें । हमारी तरफ से इस विषय में जो कुछ मंतव्य था लिख दिया है । श्री विजयप्रभसूरिजी स्वयं उग्रविहारी तो न थे, पर उनके मूल गुणों में कोई खामी नहीं थी । उनके पास मध्यम और कनिष्ठ स्थिति के यति थे । अतः वहाँ रहकर उग्रविहारिपन रखना मुश्किल था इस कारण से सत्यविजयजी श्रादि ने गच्छपति की सम्मति से क्रियोद्धार करके यतियों का संसर्ग छोड़ा था । पर गच्छपति के साथ वन्दन- व्यवहार रखते थे और उनकी धार्मिक आज्ञाओं को भी मानते थे । संवेगी और संविग्न शब्द पुराने हैं । क्रियोद्धारकों के लिए ही नहीं, किसी भी त्यागी तपस्वी के लिये व्यवहृत होते थे । "संबोध प्रकरण" आदि ग्रन्थ पढ़ने से आपको इन शब्दों की प्राचीन रूढ़ता का पता लगेगा। यही नहीं बल्कि उपाध्यायजी के बहुत से वचन उक्त ग्रन्थ के अनुवाद मात्र हैं यह भी ज्ञात होगा । "ऊकेश गच्छचरित्र" के अनुसार "श्री यक्षदेवसूरि ने श्री चन्द्रसूरिजी के पास उपसम्पदा ली थी" और यही हकीकत सत्य भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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