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निबन्ध-निचय
: २३१
लिये "पंच महाव्रत किहाँ उच्चरियाँ सेव्यं केहनुं पासुं रे" इत्यादि कथन
किया जा सकता है ? ये शब्द उन्हीं के लिये प्रयुक्त हो सकते हैं जो गुरु निरपेक्ष होकर स्वयं साधु बने हों। सचमुच ही ढुंढकादि ऐसे थे और उन्हीं को लक्ष्य करके उपाध्यायजी ने उक्त शब्द लिखे हैं ।
"चढ्या पढ्यानों अन्तर समझी" इत्यादि दो गाथाएँ भी ऐसे ही स्वयम्भू साधुयों की उत्कृष्टता की पोल खोलने के लिये कही गई हैं और इनके नीचे की "पासत्यादिक सरीखे वेषे" यह गाथा उन उद्भट वेषधारी यतियों के लिये है, जो पासत्थों की कोटि में प्रविष्ट हो चुकने पर भी अपने को साधु मानते थे । वर्ण बदल कर कपड़े पहनने वालों का इससे कोई वास्ता नहीं है ।
"हीरो निज परिवार बढ़ावे" इत्यादि तीन गाथागत उपदेश ढुंढकों के लिए है ।
"पहेली जे व्रत झूठ उच्चरियां" यह कथन स्वयम्भू साधुओं को लक्ष्य करके किया गया है ।
उपाध्यायजी कहते हैं— 'तुमने उच्चरे हैं वे प्रामाणिक नहीं हैं, धारण करो ।'
पहले जो महाव्रत गुरु विना स्वयं इसलिए तुम फिर गुरुसाक्षिक महाव्रत
जो क्रियोद्धारक गुरु आज्ञा से उक्त कथन कभी संगत नहीं हो सकता ।
उत्कृष्ट चारित्र पालते थे उनके लिये
"पासत्थादिक ज्ञाति न तजई" ये शब्द उन यतियों के लिये हैं जो आप "पासत्थों के लक्षण युक्त तथा पासत्थों से संसक्त रहते हुए भी साधु होने का दावा करते थे ।"
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उपाध्यायजी के इन वचनों से यही सिद्ध होता है कि उपाध्यायजी स्वयं पासत्थों और पासत्थों के शामिल रहने वाले यतियों से दूर रहते थे । इसके आगे की गाथायें उन कपटी साधु नामधारियों के सम्बन्ध में हैं जो त्यागी होते हुए भी आत्मप्रशंसक और परनिन्दक होते थे । उपाध्यायजी
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