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________________ २३० : निबन्ध-निचय " विषम काल ने जोरे केई" इत्यादि पांचों ही गाथाएँ नवीन वेषधारियों के लिये हैं । में ही नहीं इस स्तवन के टबार्थ लेखक भी जो उपाध्यायजी के अधिक पश्चाद्वर्ती नहीं थे, यही कहते हैं कि उपाध्यायजी का यह उपदेश ढुंढकों के लिए है । देखिये नीचे का उल्लेख "प्राई ए ढाल दुढीया लूंका प्राश्रिने छे, पछें बीजीइं जीव ने सीषामरण छें, हवें तें ढुंढिया ने माथें गुरु नथी ते माटे इम कह्यं, जे " उठ्या जड़ मलधारी” इत्यादि शब्दों में अर्थकार ने उपाध्यायजी का उक्त कथन ढुंढकों में घटाया है और "श्रुत हीलनोत्पत्ति" कारकों के विषय में लिखे गये "वंग धूलिया" प्रकरण का पाठ उद्धृत किया है । "गुरु गच्छ छोडी " इन शब्दों ने श्रापके दिमाग को भ्रमित कर दिया है, इसलिये श्राप कहते हैं कि इनके गुरु गच्छ नहीं थे तो छोड़ना कैसा ? परन्तु स्वस्थ चित्त से सोचेंगे तो इसमें अनुपपत्ति कुछ भी नहीं है । गुरु गच्छ छोड़ने का अर्थ "गुरु गच्छ में से निकल कर " यह नहीं है किन्तु इसका अर्थ 'गुरु गच्छ की निरपेक्षतावाले' ऐसा होता है, जैसे "कौश्रा सरोवर को छोड़कर छीलर जल पीता है" यहां सरोवर छोड़ने का अर्थ उसमें से निकलना नहीं होता, किन्तु उसकी उपेक्षा करना होता है । इसी तरह प्रकृत में श्री गुरु गच्छ छोड़ने का अर्थ गुरु गच्छ की उपेक्षा मात्र होता है । उपेक्षक गच्छ में से निकला हो या स्वयंभू हो, जब तक वे गुरु गच्छ की दरकार न करेंगे दोनों गुरु गच्छ छोड़ने वाले ही कहलायेंगे । " नाणतरणों संभागी होवे' समझमे वाले ढुंढकों के लिये हैं । इत्यादि गाथायें भी गुरु की जरूरत न देखिये उनमें के नीचे के शब्द"दुख पाम्या तिम गच्छ तजी ने, आपमती मुनि थाता है" क्या गुरु के पास दीक्षा लेकर क्रियोद्धार करने वालों के लिए " श्रापमती मुनि थाता" ये शब्द संगत हो सकते हैं ? कभी नहीं, गुरु के पास संघ समक्ष पंच महाव्रत उच्चरने के उपरान्त अधिक समय तक गुरु के पास रहकर सिद्धान्त पढ़ने के बाद उग्रविहार करने वाले क्रियोद्धारकों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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