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निबम्ब-निमय
और संविग्नों की तरफदारी करने के कारण यति लोगों ने श्री पूज्य की सलाह से उपाध्यायजी को तीन दिन तक एक कमरे में कैद कर रक्खा था जिसका गर्भित सूचन आपने "शंखेश्वर पार्श्वनाथ के स्तवन" में किया है फिर भी आपने यतियों के पक्ष में रहना मंजूर नहीं किया था।
उपाध्यायजी ने स्वच्छन्द विहारियों के लिए कुछ भी लिखा हो पर यह क्रियोद्धारकों के लिए नहीं हो सकता। चाहे उन्होंने संवेगी या संविग्न शब्दों का भी प्रयोग किया हो, पर वर्तमान संवेगी परम्परा को लक्ष्य करके नहीं हो सकता। कई जगह आपने प्राचीन ग्रन्थों का अर्थ ही नहीं लिया बल्कि उनके शब्द तक अपनी कृतियों में उतारे हैं। ऐसे प्रसंगों में प्रयुक्त संवेगी, संविग्न आदि शब्द, जो वस्तुतः प्राचीन ग्रन्थों से इनकी कृतियों में आए हुए हैं, उनको वर्तमान व्यक्तियों को लागू करना अनुचित है। उपदेशपद, उपदेशमाला, षोडशक, पंचाशक, अष्टक आदि प्राचीन ग्रन्थों को पढ़कर आप उपाध्यायजी के स्तवन; द्वात्रिंशिकायें, अष्टकादि प्रकरण पढ़िये । आपको यही ज्ञात होगा कि उपाध्यायजी के ग्रन्थ वास्तव में प्राचीन ग्रन्थों का रूपान्तर मात्र हैं।
पं० सत्यविजयजी आदि विद्वानों ने प्राचार्य श्री विजयप्रभसूरिजी की आज्ञा से उनके गच्छपतित्व के समय में क्रियोद्धार किया था, तब उ० श्री यशोविजयजी ने जिन कृतियों में स्वेच्छा विहारियों की टीका की है, वे बहुधा विजयदेवसूरिजी के समय में बन चुकी थीं, जब कि क्रियोद्धार अभी भविष्य के गर्भ में था। इससे भी सिद्ध है कि उपाध्यायजी के टीकापात्र क्रियोद्धारक संवेगी नहीं पर गच्छविहीन 'विजयमती' और 'ढुंढक' आदि थे। संवेगी शब्द को किसी भी क्रियोद्धारक ने अपने लिये रजिस्टर्ड नहीं करवाया था। कोई भी त्यागी और तपस्वी उस समय 'संवेगी' कहलाता था।
आपका जिन की तरफ संकेत है वे चन्द्रप्रभ, आर्य रक्षित; जिनवल्लभ आदि प्राचार्य क्रियोद्धारक नहीं पर मताकर्षक थे। इन्होंने क्रियोद्धार नहीं पर क्रियाभेद और मार्गभेद किया था। इनको कियोद्धारक कहला
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