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निबन्ध-निचय
मु. हरजी, पो० गुड़ा बालोतरा (मारवाड़) ता० ६-७-४१; विनयादि गुणविभूषित मुनिराज श्री मुनि ज्ञानसुन्दरजी प्रादि
फलोदी-मारवाङ
अनुवन्दना सुख शाता के बाद निवेदन कि पत्र मिला, समाचार विदित हुए।
उ० श्री यशोविजयजी ने क्रियोद्धार किया था ऐसा उल्लेख उनके किसी बड़े स्तवन के टिबे में पं० श्री पद्मविजयजी ने किया है, ऐसा मुझे स्मरण है। पर यहां पुस्तक न होने से निश्चित नहीं बता सकता।
पं० पद्मविजयजी, रूपविजयजी, वीरविजयजी आदि संविग्न शाखा के पिछले विद्वानों ने पूजा आदि ग्रन्थों में अपने समय के श्री पूज्यों को गच्छपति के तौर पर स्वीकार करके उनके धर्म-राज्य में कृति निर्माण होने के निर्देश किये हैं, इसी तरह इनके गुरु, प्रगुरु आदि ने भी गच्छपतियों को अपना गच्छपति गुरु माना है। यदि वे उनको छोड़कर स्वतन्त्र हुए होते तो अपनी कृतियों में तत्कालीन गच्छपतियों के धर्म-राज्य का उल्लेख करना असंगत होता।
उपाध्यायजी क्रियोद्धार में शामिल हुए थे इस बात के समर्थन में उपाध्यायजी के
"परिग्रह ग्रहवशे लिंगीया, लेई कुमति रज सीस, सलूणे जिम तिम जग लवता फिरे, उन्मत्त हुइ निस दोस सलूरले ॥५॥"
___ इत्यादि वचन ही प्रमाण है। पं० पद्मविजयजी कृत उपाध्यायजी के स्तवन के टवे के उपरान्त आज कोई पूरावा नहीं है। पर श्री उपाध्यायजी ने यति समाज की जो लीलाएँ प्रकाशित की हैं इससे ही स्पष्ट होता है कि वे यतियों के कट्टर विरोधी थे। दन्तकथा तो यहां तक प्रचलित है कि यतियों का विरोध
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