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________________ २२६ । निबन्ध-निचय "सुष्ठु विहितं विधानं येषां ते सुविहिताः उग्रविहारिणः, सुविहिताना माचारः सुविहिताचारः सो यस्यास्तीति "सुविहिताचारी" इस प्रकार सुविहित शब्द मात्र का अर्थ भी आप समझ लेते तो उपाध्यायजी के क्रियोद्धार का विरोध करने की कदापि भूल नहीं करते । अब भी मुनिजी समझ लें कि सुविहिताचारी मुनि वही कहलाते हैं जो मूल और उत्तर गुणों को समयानुसार शुद्ध पालते हुए अप्रतिबर विहार करते हैं। यदि उपाध्यायजी ऐसे थे तो आप माने, चाहे न माने वे क्रियोद्धारक थे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है । अन्त में मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी से सानुरोध प्रार्थना करूँगा कि क्रियोद्धारकों के सम्बन्ध में आपने जो अभिप्राय व्यक्त किया है, वह एकदम गलत है। क्रियोद्धारकों से शासन की हानि नहीं पर हित हुआ है और होगा। भूतकाल में समय-समय पर क्रियोद्धार होते रहे हैं, तभी आज तक निर्ग्रन्थ श्रमणों का प्राचार-मार्ग अपना अस्तित्त्व टिका सका है और भविष्य में भी क्रियोद्धारकों द्वारा ही श्रमणों का क्रियामार्ग अक्षुण्ण रहेगा यह निश्चित समझियेगा। आशा है, मुनिजी क्रियोद्धार विषयक अपने अभिप्राय की अयथार्थता महसूस करेंगे और शासन के हित के खातिर उसे बदलने की सरलता दिखायेंगे। . हमें आशा ही नहीं बल्कि विश्वास है कि इस थोड़े से विवेचन से ही मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी क्रियोद्धार विषयक अपनी भूल को समझ सकेंगे और समाज के हितार्थ उसका परिमार्जन करने की सरलता दिखायेंगे। हरजी (राजस्थान) ता० २५-६-१९४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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