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________________ निबन्ध-निचय : २२५ शुरु किया तब से संविग्न शाखा ने उनसे क्षेत्रादेश पट्टक लेना बंद कर दिया था और इसका अनुकरण कतिपय यतियों ने भी किया था, जिससे मजबूर होकर क्षेत्रादेश पट्टक के बदले में रुपया लेना श्रीपूज्यों को बन्द करना पड़ा था। फिर भी गच्छपतियों के पतन की कोई हद नहीं रही थी। प्रतिदिन मूल उत्तर गुणों से वंचित होते जाते थे और समाज की श्रद्धा उन पर से हटती जाती थी। समय रहते यदि गच्छपतियों ने भी क्रियोद्धार कर लिया होता तो न संविग्न साधुपरम्परा उनके अंकुश से बाहर निकलती और न जैन संघ ही उनसे मुंह मरोड़ता। पर यति नहीं चेते और गच्छपति के स्थान के वारिशदार श्रीपूज्य भी नहीं चेते, जिसका परिणाम प्रत्यक्ष है। जैन संसार से ही नहीं प्राज जगत् भर से उनका नामोनिशान मिटने की तैयारी में है। कोई अज्ञानी इस दशा का कारण भले ही संविग्न माधुओं का प्राबल्य मानने की भूल करे, पर जो धर्म-सिद्धान्त के जानकार हैं वे तो यही कहेंगे कि इस दशा के जवाबदार श्रीपूज्य और यति स्वयं हैं। कयोंकि खागकर के जनसमाज हमेशा से धर्मगुरुओं को पूजता आया है, पर धर्मगुरुत्रों के निर्गुण खण्डहरों को नहीं, इस सत्य को वे नहीं समझ सके । __मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी आधुनिक श्रमणसंघ की अव्यवस्था और पारस्परिक अनमेल की जिम्मेदारी क्रियोद्धारकों के ऊपर किस अभिप्राय से मढ़ते हैं यह समझ में नहीं आता। कोई दस पीढ़ी पहले के क्रियोद्धारकों की संतति में आज कुछ दोष दीखे तो वह क्रियोद्धार का परिणाम नहीं किन्तु क्रियोद्धार को जोर्णता का परिणाम है और इससे तो उल्टा यों कहना चाहिए कि क्रियोद्धार हुए बहुत समय हो गया है। उसका असर किसी अंश में मिट गया है अतः नये क्रियोद्धार की आवश्यकता निकट पा रही है। अन्त में मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी लिखते हैं "उपाध्याय महाराज ने न क्रियोद्धार किया और न यतियों की स्वाभाविक शिथिलता को ही सेवन किया। वे तो थे "तटस्थ-सुविहिताचारी श्रमण" जिन्होंने समयानुकूल सभी को सदुपदेश दिया।" ___ उपाध्यायजी को सुविहिताचारी श्रमण मानते हुए भी मुनिजी उन्हें क्रियोद्धारक नहीं मानते। यह बात तो "माता मे वन्ध्या" जैसी हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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