SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ : निबम्ब-निचय उग्रविहारियों का साथ नहीं छोड़ा और कई शिथिलाचारियों को प्रेरणा करके क्रियोद्धारक बनाया पर उनकी उपेक्षा नहीं की। इस स्थिति में उपाध्यायजी क्रियोद्धारक हो सकते हैं या नहीं इसका मुनिजी स्वयं विचार करें। श्रीमान् मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने क्रियोद्धार का जो निष्कर्ष निकाला वह इस विषय के आपके कच्चे ज्ञान का परिचायक है और क्रियोद्धारकों पर शासनभेद का बार-बार इल्जाम लगाते हैं, यह क्रियाविषयक कुरुचि का द्योतक है। _वास्तव में जिन्होंने क्रियोद्धार किया था उन्होंने शासन का उत्कर्ष किया था। शिथिलाचार के निरंकुश वेग को रोक कर जैन श्रमण-संस्कृति की रक्षा करने के साथ ही शिथिलाचारियों को सुधारने की चुनौती दी थी। उस समय कतिपय यति ही शिथिलाचारी नहीं हुए थे, अपितु सारा समुदाय ही बिगड़ चुका था। गच्छपति और उनके निकटवर्ती कतिपय गीतार्थ अवश्य ही मूल गुणों को बचाये हुए थे, परन्तु अधिकांश यतिवर्ग की स्थिति यहां तक बिगड़ चुकी थी कि क्रियोद्धार के विना विशुद्ध जैन श्रमण-मार्ग का अस्तित्व रहना मुश्किल था। यही कारण है कि प्रात्मार्थी विद्वानों ने क्रियोद्धार करने का निश्चय किया और तत्कालीन गच्छनायक ने उनके शुभ विचार का अनुमोदन किया था। मुनिजी क्रियोद्धारकों को निर्मायक कहकर अपने इतिहास विषयक प्रज्ञान का परिचय मात्र दे रहे हैं। वास्तव में तो यतियों के ऊपर जो नायक थे वे ही क्रियोद्धारकों के भी नायक थे। क्रियोद्धारक भी उन्हीं की आज्ञा से विचरते, चातुर्मास्य करते और संयम पालते थे। मुनिजी ने क्रियोद्धारक-संविग्न श्रमणों के और उनकी शिष्यपरम्परा के ग्रन्थ पढ़े होते तो संभव है कि आप यह कहने का कभी दुस्साहस नहीं करते कि क्रियोद्वारक निर्मायक थे। क्रियोद्धारक श्रमण ही नहीं किन्तु उनकी शिष्यपरम्परा उन्नीसवीं सदी तक गच्छपति श्रीपूज्यों को किसी अंश में मानती थी। हाँ जब से श्री पूज्यों ने रुपया लेकर यतियों को क्षेत्रादेश पट्टक देना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy