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________________ निबन्ध-निचय : २२३ इधर सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में ऋषि लवजी, ऋषि अमीपालजी, धर्मसी आदि , कतिपय व्यक्तियों ने लोंकापन्थ में से निकलकर उग्रविहार शुरु किया। बाह्य कष्ट-क्रियाओं के प्रदर्शन से इनकी तरफ भी लोक-प्रवाह पर्याप्त रूप से बहने लगा, आगे जाकर यही परम्परा "ढुंढक'' इस नाम से प्रसिद्ध हुई । उक्त दोनों मत (बीजा मत और ढुंढक मतके साधु प्रायः निरक्षर होते थे, फिर भी मलिन वस्त्र, उपविहार, कठोर तप आदि गुणों से वे जन-समूह को अपनी तरफ खींच रहे थे और प्रतिदिन उनका पंथ वृद्धिंगत हो रहा था। उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी ने अपनी कृतियों में इन्हीं दो मत के उग्रविहारी जड एवं गुरुगच्छ विहीन साधुओं को लक्ष्य करके हित शिक्षा दी है, जिसे मुनि श्री ज्ञानमुन्दरजो मार्गगामी और गच्छप्रतिबद्ध विद्वान् क्रियोद्धारकों के साथ जोड़ने की भूल कर बैठे हैं। __उपाध्यायजी की भाषा-कृतियों के कुछ पद्य उद्धृत करके ज्ञानसुन्दरजी कहते हैं-"उपरोक्त प्रमारणों से स्पष्ट पाया जाता है कि श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज ने न तो क्रिया उद्धार ही किया था और न शासन में छेद-भेद डालकर अाप क्रिया करना ठीक ही समझते थे। इस समय कतिपय यति शिथिलाचारी हो गये थे, पर उनके ऊपर एक विशेष नायक तो अवश्य ही था, पर क्रियोद्धारकों पर तो कोई नायक ही नहीं रहा । परिणाम यह निकला कि आज इस नियकता के साम्राज्य में एक ही गच्छ में अनेक प्राचार्य और अनेक प्रकार के बाह्य मतभेद दृष्टिगोचर होने लगे।" __उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी ने उग्रविहारियों को लक्ष्य कर जो भी कथन किया है वह गच्छानुयायी क्रियोद्धारकों को लागू नहीं हो सकता। उपाध्यायजी क्रियोद्धारकों के विरोधी नहीं पर उनके परम सहायक थे। इसके बदले में वे यतियों द्वारा कई बार सताये भी गये थे, पर आपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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