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निबन्ध-निचय
पड़ता है कि मुनिजी श्री उपाध्यायजी के उक्त वचनों का मर्म ठीक नहीं समझे। उ० महाराज का उक्त उपदेश क्रियोद्धारकों के लिए नहीं पर ढुंढक, वीजामती आदि गुरुगच्छ-वजित स्वयम्भू साधुओं के लिए है। जड़मलधारी, गुरुगच्छ छंडी, मारग लोपो आदि विशेषण ही कह रहे हैं कि यह शिक्षा ढंढक और वीजामतियों के लिए है। क्रियोद्धारक जड़ नहीं पर सभी विद्वान् थे, वे मलधारी नहीं पर शास्त्रानुसारो साधु-वेषधारी थे। उन्होंने न गुरु को छोड़ा था, न गच्छ को । वे अपने गुरु और गच्छ की आज्ञा में रहकर क्रियोद्धारक बने थे और चारित्र पालते थे। उनके ही क्यों, उनके शिष्यों तक के ग्रन्थों की प्रशस्तियां देखिये, वे उनमें अपने गच्छ और गच्छपति गुरु का आदरपूर्वक उल्लेख करते हैं।
क्रियोद्धारकों को मार्ग का लोपक समझना बुद्धि का विपर्यास है । क्योंकि उन्होंने मार्ग लोपा नहीं, बल्कि मार्ग की रक्षा की थी, यह जगजाहिर है। गीतार्थ विना उस समय कौन भूले भटके थे, इसका भी मुनिजी ने कोई विचार नहीं किया। पंन्यास सत्यविजयजी और उनके सहकारी क्रियोद्धारक सभी विद्वान् थे। उनको उपाध्यायजी का उक्त वर्णन कभी लागू नहीं हो सकता।
वास्तविकता तो यह है कि सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लोंकामत में से विजयऋषि ने अपना एक स्वतन्त्र मत निकाला था। वे मूर्ति-पूजा को मानते थे। श्वेताम्बर साधुओं की तरह दंड कंबल वगैरह भी रखते थे। फिर भी उनके वेष में कुछ लोंकापन्थ की झलक रह गई थी।
वीजा ऋषि बड़े ही तपस्वी थे। आपने इस तपोबल से लोगों का काफी आकर्षण किया था। लोंकापन्थ से निकलकर के भी उन्होंने कोई नया गुरु धारण नहीं किया और न किसी सुविहित गच्छ में ही प्रवेश किया था। फलतः उनकी परम्परा का उन्हीं के नाम से "विजयगच्छ" यह नाम प्रसिद्ध हुआ। मेवाड़, मेवात-प्रदेश आदि देशों में इसका विशेष प्रसार हुआ। उपाध्यायजी के समय तक इस मत ने अपना निश्चित रूप धारण कर लिया था।
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