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निबन्ध-निचय
: २२१
मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी का कथन है कि-"उपाध्यायजी महाराज ने क्रिया उद्धार नहीं किया था, पर यतिसमुदाय में रहकर ही उभयपक्ष को ( क्रिया उद्धारक श्रमरणों को एवं शिथिलाचारी यतियों को) हित शिक्षा दी थी।
क्या मुनिजी बतायेंगे कि उभय को शिक्षा देने वाले उपाध्याय श्री यशोविजयजी खुद किस वर्ग में थे ? शिथिलाचारियों में अथवा उग्रविहारियों में ? यदि वे स्वयं शिथिलाचारी थे तब तो शिथिलाचारियों को उपदेश देने का उन्हें कोई अधिकार ही नहीं था। वैसा उपदेश करने को उनकी जवान ही न चलती पर आपने शिथिलाचारियों को उपदेश दिया है और खूब दिया है। "उन्हें परमपद के चौर और उन्मत्त तक कह कर फटकारा है", इससे प्रकट है कि उपाध्यायजी आप शिथिलाचारी नहीं थे। माप भी अन्त में यह तो कबूल करते हैं कि उपाध्यायजी महाराज शिथिलाचारियों में नहीं थे। जब वे शिथिलाचारी नहीं थे तो अर्थतः वे 'उग्रविहारी थे' यही कहना होगा। आप सुविहिताचारी श्रमण कहते हैं इसका अर्थ भी उग्रविहारी ही होता है और उग्रविहारी मान लेने के बाद उन्हें क्रियोद्धारक मानना ही तर्कसंगत हो सकता है ।
उपाध्यायजी कृत-विज्ञप्ति स्तवन की
"विषम काल ने जोरे, केई उठ्या जड़मलधारी रे । गुरु गच्छ छंडी मारग लोपी, कहे अमे उग्रविहारी रे ॥१॥
"गीतारथ विण भूला भमता, कष्ट करे अभिमाने रे।
प्राये गंठी लगे नवि आव्या, ते खूता अज्ञाने रे ॥श्री।।३॥ तेह कहे गुरु गच्छ गीतारथ, प्रतिबंधे शुं कीजे रे ।
दर्शन; ज्ञान, चारित्र आदरिये, आपे पाप तरीजे रे ॥श्री॥४॥"
इत्यादि गाथाएँ उद्धृत करके मुनिजी कहते हैं-इसमें उपाध्यायजी ने क्रियोद्धारकों को हित शिक्षा दी है। इस पर हमें दुःख के साथ लिखना
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