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निबन्ध-निचय
त्याग मार्ग का स्वीकार करने में असमर्थ रहा, परिणामस्वरूप श्री विजयदेवसूरि तथा श्री विजयसिंहसूरि के समय तक शिथिलाचार बहुत फैल गया । यदि लोग खुल्लंखुल्ला द्रव्यसंग्रह करके ब्याज बट्टा खाने और बौहरगत करने लग गये थे । उत्तर गुणों की तो बात ही क्या, मूल गुणों का भी ठिकाना नहीं रहा था । साधुमार्ग का यह पतन पं० श्री सत्य - विजयजी आदि आत्मार्थी श्रमणगरण को बहुत ग्रखरा । उन्होंने अपने गच्छपति आचार्य की आज्ञा लेकर क्रियोद्धार किया और त्यागी जीवन गुजारने लगे ।
पं० पद्यविजयजी महाराज के लेखानुसार पंन्यासजी के इस क्रियोद्धार में उनके समकालीन विद्वान् उपाध्याय श्री विनयविजयजी, न्यायाचार्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी आदि बहुतेरे ग्रात्मार्थी साधुजन शामिल हुए थे । क्या मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी बतायेंगे कि उक्त क्रियोद्धारक महानुभाव विद्वान् साधुनों से शासन की क्या हानि हुई, अथवा इन्होंने समाज की संगठित शक्ति को किस प्रकार विभक्त किया ? वास्तविकता तो यह कहती है कि श्री जगच्चन्द्रसूरि, श्री आनन्दविमलसूरि और श्री सत्यविजयजी पंन्यास जैसे महापुरुषों ने अपने-अपने समय में क्रियोद्धार द्वारा श्रमरणमार्ग की शुद्धि न की होती तो तपागच्छीय संविज्ञ श्रमणों की भी ग्राज वही दशा हुई होती जो 'मथेरण' तथा 'पौषालवासी भट्टारकों' की हुई है ।
खरतर, प्रचलिक आदि गच्छों में जो थोड़ा बहुत साधु-साध्वियों का समुदाय दृष्टिगोचर होता है वह भी इनके पुरोगामी नायकों के क्रियोद्धार का ही फल है ।
मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी जिसका उद्धार करने की चेष्टा कर रहे हैं उस "ऊकेश गच्छ" के एक आचार्य "श्री यक्षदेवसूरि ने भी चन्द्रकुल प्रवर्तक श्री चन्द्रसूरिजी के पास उपसम्पदा लेकर क्रियोद्धार किया था और वे पार्श्वस्थावस्था छोड़कर महावीर की सुविहित श्रमण परम्परा में दाखिल हुए थे ।" अगर मुनिजी इस प्रसंग को भूल गये हों तो “ऊकेश गच्छ चरित्र" की वही प्राचीन प्रति मंगाकर किसी विद्वान् के पास समझ लें ।
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