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निबन्ध - मिचय
: २१६
(१) जिसकी गुरुपरम्परा सात-आठ पीढ़ी से शिथिलाचार में फंसी हुई है, ऐसा कोई शिथिलाचारी प्राचार्य अथवा साधु यदि उग्रविहारी बनना चाहे तो उसे अपने पूर्व गच्छ और पूर्व गुरु का त्याग कर दूसरे सुविहित गच्छ और गुरु को स्वीकार करना चाहिये । इस प्रकार का क्रियोद्धार करने वाले का नाम शास्त्र में " उपसम्पन्नक" लिखा है ।
(२) जिसकी गुरुपरम्परा में दो तीन पीढ़ी से ही शिथिलाचार प्रविष्ट हुआ हो ऐसा प्राचार्य अथवा साधु क्रियोद्धार करना चाहे तो अपनी गुरुपरम्परा में जो जो असुविहित प्रवृत्तियाँ प्रचलित हों उनका त्याग कर सुविहित मार्ग पर चलें । उसे अपने गच्छ और गुरु को त्याग कर नया गुरु धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
विक्रम की १३वीं शती में चैत्रगच्छीय श्रीदेवभद्र गरिण और बृहद्गच्छीय श्री जगचन्द्र सूरिजी ने जो क्रियोद्धार किया था वह इसी प्रकार का था । देवभद्र गरिण और जगच्चन्द्रसूरि की गुरु-परम्पराम्रों का शिथिलाचार नया ही था इस कारण से उन्होंने एक दूसरे की सहायता से क्रियोद्धार किया था । जगच्चन्द्रसूरि गौर देवभद्र गरिण इन दोनों महापुरुषों ने शिथिलाचार को छोड़कर जो उग्रविहार और सुविहिताचार का पालन किया था उसके प्रभाव से निर्ग्रन्थ श्रमरण मार्ग फिर एक बार अपने खरे रूप में चमक उठा और लगभग दश पीढ़ी तक ठीक ढंग पर चलता रहा ।
दुष्षमकाल के प्रभाव और जनप्रकृति के निम्नगामी स्वभाव के कारण फिर धीरे-धीरे गच्छ में शिथिलता का प्रवेश होने लगा । श्रीश्रानन्दविमल सूरिजी के समय तक यतियों में चोरी छिपी से द्रव्य संग्रह तक की खराबियाँ उत्पन्न हो गयी थीं । श्री श्रानन्दविमल सूरिजी ने अपने गच्छ में से इन बदियों को दूर करने का निश्चय किया । उन्होंने सं० १५८२ में क्रियोद्धार कर गच्छ में जो जो शिथिलताएँ घुसी थीं उनको दूर करने का प्रयत्न किया । परन्तु आपका यह क्रियोद्वार गच्छ की पूर्ण शुद्धि नहीं कर सका । गच्छ का एक बड़ा भाग आपके उग्रविहार और
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