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निबन्ध-निचय
मुद्रित जैनतर्कवार्तिक के सम्पादकीय वक्तव्य में सम्पादक पं० विट्ठल शास्त्री लिखते हैं-"शान्त्याचार्य ने सिद्धसेन के जैनतर्कवार्तिक पर यह वृत्ति लिखी है,” परन्तु वास्तव में यह बात नहीं हैं, जैनतर्कवार्तिक के चारों परिच्छेदों की मूल कारिकाएं भी शान्त्याचार्य की रचना है,
"तत् प्रमाणं प्रवक्ष्यामि, सिद्धसेनार्कसूत्रितम् ॥ १॥" इस वाक्य में उल्लिखित "सिद्धसेनार्क-सूत्रितम्" इन शब्दों से सम्पादक को सिद्धसेनकृति होने का भ्रम हो गया है। वास्तव में इन शब्दों का अर्थ यह है कि “सिद्धसेन के ग्रन्थों में जिस प्रमाण का सूत्रण हुआ है उसी का भाव लेकर मैं जैनतर्कवातिक को कह रहा हूं। ऐसा शान्त्याचार्य का कथन है।
प्रत्यक्ष परिच्छेद के अन्त में शान्त्याचार्य स्वयं कहते हैं-सिद्धसेन निर्मित ग्रन्थों की वाणी रूपी सिद्धशलाका को पाकर मैं ने इस प्रकरण को निर्मल बनाया, इस कथन से स्पष्ट हो जाता है, कि जैनतर्फवार्तिक शान्त्याचार्य की खुद की कृति है ।
शान्त्याचार्य अपने स्वोपज्ञ जैनतर्कवार्तिक की वृत्ति में कहते हैंचूडामणि, केवलि-प्रमुख अर्हत्प्रणीत हैं, वे उसी स्थल पर “सर्वज्ञवाद टीका" में आई हुई प्रमाण परिच्छेद की एक मूल कारिका में आए हुए "एके" इस शब्द का परिचय देते हुए लिखते हैं कि “एके” “अनन्तवीर्यादयः" इससे निश्चित हो जाता है, जैनतर्कवार्तिक मूल शान्त्याचार्य की कृति है, सिद्धसेन की नहीं। अनन्तवीर्य का समय दिगम्बर विद्वान् ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास होने का अनुमान करते हैं, जब कि सिद्धसेन संभवतः पंचम शताब्दी से पहले के हैं, इस दशा में सिद्धसेन के ग्रन्थ में अनन्तवीर्य के मन्तव्य का उल्लेख नहीं हो सकता। शान्त्याचार्य ने अपनी वार्तिक वृत्ति में विन्ध्यवासी, धर्मकीर्ति, नयचक्रकार के नामों का भी उल्लेख किया है।
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