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जैन तर्क वार्तिक
श्री शान्त्याचार्य विरचितवृत्ति सहितम्
"जैनतर्कवार्तिक” शान्त्याचार्य की कृति है, ग्रन्थकार ने अपने सत्तासमय का कुछ भी सूचन नहीं किया, वृत्ति की प्रशस्ति में आपने अपने को चन्द्रकुलीन प्राचार्य वर्द्धमान का शिष्य बताया है, और अपने गुरु को रत्नांबुधि बतलाया है, इससे इतना तो सिद्ध होता है कि प्रस्तुत शान्तिसूरि तथा इनके गुरु वर्द्धमानाचार्य संविग्न विहारी थे, जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्द्धमान सूरि तथा नवांगीवृत्तिकार अभयदेव सूरि के मुख्य शिष्य का नाम भी वर्द्धमान सूरि था, ये भी संविग्न विहारी थे, इस परिस्थिति में जैनतर्कवातिककार कौन से वर्द्धमान सूरि के शिष्य होंगे, यह कहना कठिन है, परन्तु प्रथम वर्द्धमान सूरि के अनेक शिष्यों प्रशिष्यों का जिनदत्त सूरि ने अपने गणधरसार्द्धशतक में नाम निर्देश किया है, परन्तु उसमें शान्त्याचार्य का नाम नहीं मिलता, परिशेषात् द्वितीय वर्धमान सूरि के शिष्य ही शान्त्याचार्य होंगे, ऐसा अनुमान करना पड़ता है, यद्यपि प्रथम वर्धमान सूरि के समकालीन एक और भी शान्तिसूरि हुए हैं, परन्तु यह कृति उनकी होने में हमें विश्वास नहीं बैठता, एक तो ये थारापद्र गच्छ के थे, दूसरा इनके गुरु का नाम वर्द्ध मान सूरि नहीं था, तीसरा वे बड़े प्रौढ़ तार्किक विद्वान् थे। जैनतर्कवातिक उनकी कृति होती तो इस का विस्तार तथा स्वरूप और ही होता, जो कि प्रस्तुत वार्तिक भी विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ है, फिर भी इसका कलेवर बहुत छोटा है, बौद्धों, जैन विद्वानों, नैयायिकों और मीमांसक विद्वानों ने वार्तिक नाम से जो ग्रन्थ बनाये हैं, वे सभी गम्भीर और आकर ग्रन्थ हैं, इससे मानना पड़ता है, इस प्रस्तुत न्यायवार्तिक के कर्ता थारापद्र गच्छीय शान्तिसूरि नहीं हो सकते ।
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