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योग दृष्टि समुच्चय-सटीक
"योगदृष्टिसमुच्चय" भी आचार्य हरिभद्र की कृति है, जो १२६ कारिकाओं में पूरी होती है।
इसकी टीका को सम्पादक सुएली ने स्वोपज्ञ माना है, क्योंकि इसके अन्त में “कृतिः श्री श्वेतभिक्षोराचार्यश्रीहरिभद्रस्येति' यह वाक्य लिखा मिलता है, परन्तु यह वाक्य टीका के साथ सम्बन्ध नहीं रखता, यह सूचना मूल कृति के लिए ही है।
योगदृष्टिसमुच्चय की १२८ वीं कारिका में “सदाशिवः परं ब्रह्म" इस प्रकार उपनिषदों के “पर ब्रह्म" का उल्लेख भी मिलता है।
टीका में अर्वाचीनता-साधक प्रमाण भी उपलब्ध नहीं होता, फिर भी टीका का प्रारंभिक आडम्बर हरिभद्र की कृति होने में शंका उत्पन्न करता है।
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