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________________ :२: योग-बिन्दु सटीक श्रीहरिभद्र सूरि रचित योगबिन्दु-ग्रन्थ में कुल ५२६ कारिकाएं हैं। दो स्थलों पर मूल कारिका में "अविद्या" शब्द का प्रयोग हुआ है । यद्यपि अविद्या शब्द बौद्धों के विज्ञानवाद में भी आया करता है, परन्तु कारिका ५१२ वी में पुरुषाद्वत तथा कारिका ५१५ वीं में समुद्र तथा उर्मियों के एकत्व का आचार्य ने खण्डन किया है, इससे ज्ञात होता है, आचार्य हरिभद्रसूरि के समय में उपनिषदों का वेदान्तवाद प्रचलित हो चुका था। ग्रन्थ की उपान्त्य कारिका में आचार्य ने अपना स्पष्ट रूप से नाम उल्लेख किया है और अन्तिम कारिका ५२६ वीं में "भवान्ध्य-विरहात्" इस प्रकार अपना नियत अंक भी लिख दिया है, परन्तु इसकी टीका स्वोपज्ञ होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। टीका का प्रारम्भिक मंगल भी हरिभद्र के मंगल की पद्धति के अनुसार नहीं है । टीका में “पडिसिद्धाणं करणे." यह गाथा आगम के नाम से उद्धृत की है, जब कि आचार्य हरिभद्र सूरिजी के जीवनकाल के पूर्व "वन्दित्तु" सूत्र निर्मित होना प्रमाणित नहीं होता, इसके अतिरिक्त टीका में बहुत से उल्लेख ऐसे दृष्टिगोचर होते हैं जो इसकी प्राचीनता के बाधक है, अन्त में टीकाकार ने "भगवतो हरिभद्रसूरे:” यह जो शब्दप्रयोग किया है इससे टीका हरिभद्र कृत नहीं, यही साबित होता है। पुस्तक-सम्पादक डा० स्वेली ने टीकाकार का नाम निर्देश नहीं किया, इससे भी यही ज्ञात होता है, वे इस टीका को हरिभद्रकृत नहीं मानते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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