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निबन्ध-निचय
(७) प्रतिष्ठाचार्य, स्नात्रकार और प्रतिमागत गुण दोष :
उक्त त्रिकगत गुण-दोष भी प्रतिष्ठा की सफलता और निष्फलता में अपना असर दिखाते हैं, यह बात पहिले ही कही जा चुकी है और शिल्पी की सावधानी या बेदरकारी भी प्रतिष्ठा में कम असरकारक नहीं होती। शिल्पी की अज्ञता तथा असावधानी के कारण से आसन, दृष्टि प्रादि यथास्थान नियोजित न होने के कारण से भी प्रतिष्ठा की सफलता में अन्तर पड़ जाता है।
(८) अविधि से प्रतिष्ठा करना यह भी प्रतिष्ठा की असफलता में एक कारण है। आज का गृहस्थवर्ग यथाशक्ति द्रव्य खर्च करके ही अपना कर्त्तव्य पूरा हुआ मान लेता है। प्रतिष्ठा सम्बन्धो विधिकार्यो के साथ मानों इसका सम्बन्ध ही न हो ऐसा समझ लेता है। मारवाड़ जैसे प्रदेशों में तो प्रतिष्ठा में होने वाली द्रव्योत्पत्ति पर से ही आज प्रतिष्ठा की श्रेष्ठता और हीनता मानी जाती है। प्रतिष्ठाचार्य और विधिकार कैसे हैं, विधि-विधान कैसा होता है इत्यादि बातों को देखने की किसी को फुरसत ही नहीं होती। आगन्तुक संघजन की व्यवस्था करने के अतिरिक्त मानो स्थानिक जैनों के लिए कोई काम ही नहीं होता। प्रतिष्ठाचार्य
और विधिकारों के हाथ में उस समय स्थानिक प्रतिष्ठा कराने वाले गृहस्थों की चुटिया होती है, इसलिये वे जिस प्रकार नचाये, स्थानिक गृहथों को नाचना पड़ता है। इस प्रकार दस पन्द्रह दिन के साम्राज्य में स्वार्थी प्रतिष्ठाचार्य अपना स्वार्थ साधकर चलते बनते हैं। पीछे क्या करना है इसको देखने की उन्हें फुरसत ही नहीं होती, पीछे की चिन्ता गाम को है। अच्छा होगा तब तो ठीक ही है पर कुछ ऊंचा-नीचा होगा तो प्रत्येक नंगे सिर वाले को पूछेगे-मन्दिर और प्रतिमाओं के दोष ? परन्तु यह तो “गते जले कः खलु पालिबन्धः" इस वाली बात होती है।
स्वार्थसाधक प्रतिष्ठाचार्यों के सम्बन्ध में प्राचार्य श्री पादलिप्तसूरि की फिटकार देखिये
"अवियारिणऊरण य विहिं, जिरणबिंबं जो ठवेति मूढमणो अहिमाणलोहजुत्तो, निवडइ संसार-जलहिमि ।।७७॥
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