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________________ २१२ : निबन्ध-निचय अपने कल्प में कंकण तथा मुद्राएँ ५-५ लिखी हैं। इनमें से १-१ इन्द्र के लिए और ४-४ स्नात्रकारों के लिए समझना चाहिए। अन्य गच्छीय प्रतिष्ठा-विधियों में आचार्य को द्रव्य पूजाधिकारविधिप्रपाकार श्री जिनप्रभसूरिजी लिखते हैं "तदनन्तरमाचार्येण मध्यमांगुलीद्वयोर्वीकरणेन बिम्बस्य तर्जनोमुद्रा रौद्र दृष्ट्या देया। तदनन्तरं वामकरे जलं गृहीत्वा आचार्येण प्रतिमा प्राछोटनीया। ततश्चन्दनतिलक, पुष्पपूजनं च प्रतिमायाः।" अर्थात्-उसके बाद आचार्य को दो मध्यमा अंगुलियां ऊंची उठाकर प्रतिमा को रौद्र दृष्टि से तर्जनी मुद्रा देनी चाहिये, बाद में बायें हाथ में जल लेकर कर दृष्टि से प्रतिमा पर छिड़के और अन्त में चन्दन का तिलक और पुष्प पूजा करे । इसी विधिप्रपागत प्रतिष्ठा-पद्धति के आधार से लिखी गई अन्य खरतरगच्छीय प्रतिष्ठा-विधि में उपर्युक्त विषय में नीचे लिखा संशोधन हुआ दृष्टिगोचर होता है "पछइ श्रावक डाबइ हाथिई प्रतिमा पाणी इं छांटइ।" खरतरगच्छीय प्रतिष्ठाविधिकार का यह संशोधन तपागच्छ के संशोधित प्रतिष्ठा-कल्पों का आभारी है। उत्तरवर्ती तपागच्छीय प्रतिष्ठाकल्पों में जलाछोटन तथा चन्दनादि पूजा श्रावक के हाथ से ही करने का विधान हुआ है जिसका अनुसरण उक्त विधिलेखक ने किया है । याज के कतिपय अनभिज्ञ प्रतिष्ठाचार्य ::: आज हमारे प्रतिष्ठाकारक गण में कतिपय प्रतिष्ठाचार्य ऐसे भी हैं कि प्रतिष्ठा-विधि क्या चीज होती है इसको भी नहीं जानते। विधिकारक श्रावक जब कहता है कि “साहिब वासक्षेप करिये" तब प्रतिष्ठाचार्य साहब वासक्षेप कर देते हैं। प्रतिमाओं पर अपने नाम के लेख खुदवा करके नेत्रों में सरमे की शलाका से अंजन किया कि अंजनशलाका हो गई। मुद्रा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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