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निबन्ध-निचय
क्रान्तिकारक तपागच्छ के आचार्य जगचन्द्रसरि ::: ___ उपाध्याय श्री सकलचन्द्रजी ने अपने प्रतिष्ठाकल्प में श्री जगच्चन्द्रसूरि कृत "प्रतिष्ठा-कल्प" का उल्लेख किया है। हमने जगच्चन्द्रसूरि का प्रतिष्ठाकल्प देखा नहीं है, फिर भी सकलचन्द्रोपाध्याय के उल्लेख का कुछ अर्थ तो होना ही चाहिए। हमारा अनुमान है कि त्यागी आचार्य श्री जगच्चन्द्रसरिजी ने प्रचलित प्रतिष्ठा-विधियों में से आवश्यक संशोधन करके तैयार किया हुआ संदर्भ अपने शिष्यों के लिए रक्खा होगा। आगे जाकर तपागच्छ के सुविहित श्रमण उसका उपयोग करते होंगे और वही जगच्चन्द्रसूरि के प्रतिष्ठाकल्प के नाम से प्रसिद्ध हुआ होगा। उसी संशोधित संदर्भ को विशेष व्यवस्थित करके प्राचार्य श्री गुणरत्नसूरिजी तथा श्री विशाल राजशिष्य ने प्रतिष्ठा-कल्प के नाम से प्रसिद्ध किया ज्ञात होता है । समयोक्ति परिवर्तन किये और विधान विशेष सम्मिलित किये हुए प्रतिष्ठाकल्प में गुरु को क्या-क्या कार्य करने और श्रावक को क्या-क्या, इसका पृथक्करण करके विधान विशेष सुगम बनाये हैं।
गुणरत्नसूरिजी अपने प्रतिष्ठा-कल्प में लिखते हैं
"थुइदाण-मंतनासो, आहवणं तह जिणाण दिसिबंधो। नेत्तम्मीलणदेसण, गुरु अहिगारा इहं कप्पे ॥१॥"
"एतानि गुरुकृत्यानि, शेषाणि तु श्राद्धकृत्यानि इति तपागच्छसामाचारीवचनात् सावद्यानि कृत्यानि गुरोः कृत्यतयाऽत्र नोक्तानि"
अर्थात्-'थुइदारण' इत्यादि गुरु कृत्य हैं तब शेष प्रतिष्ठा सम्बन्धी सर्व कार्य श्रावककर्तव्य हैं। इस प्रकार की तपागच्छ की सामःचारी के वचन से इसमें जो जो सावध कार्य हैं वे गुरु-कर्त्तव्यतया नहीं लिखे, इसी कारण से श्री गुणरत्नसूरिजी ने तथा विशालराज शिष्य ने अपने प्रतिष्ठाकल्पों में दी हुई प्रतिष्ठासामग्री की सूचियों में कंकण तथा मुद्रिकाओं की संख्या ४-४ की लिग्नी है और साथ में यह भी सूचन किया है कि ये कंकण तथा मुद्रिकाएँ ४ स्नात्रकारों के लिए हैं। उपाध्याय सकन चन्द्रजी ने
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