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२१० :
निबन्ध-निचय
को सावद्य गिन के निषेध करते थे । इस वस्तुस्थिति का निर्देश प्रचारदिनकर में नीचे लिखे अनुसार मिलता है
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" ततो गुरुर्नवजिनबिम्बस्याग्रतः मध्यमांगुलीद्वयोर्ध्वकरणेन रौद्रदृष्ट्या तर्जनीमुद्रां दर्शयति । ततो वामकरेण जलं गृहीत्वा रौद्रदृष्ट्या बिम्बमाछोटयति । केषांचिन्मते स्नात्रकारा वामहस्तोदकेन प्रतिमामाछोटयन्ति ।” ( २५२ )
अर्थात् — उसके बाद गुरु नवीन जिनप्रतिमा के सामने दो मध्यमांगुलियां खड़ी करके क्रूर दृष्टि से तर्जनी मुद्रा दिखायें और बायें हाथ में जल लेके रौद्र दृष्टि करके प्रतिमा पर छिड़कें । किन्हीं प्राचार्यों के मत से बिम्ब पर जल छिड़कने का कार्य स्नात्रकार करते हैं । वर्धमानसूरि के "केषाञ्चिन्मते " इस वचन से ज्ञात होता है कि उनके समय में अधिकांश आचार्यों ने सचित जलादि - स्पर्श के कार्य छोड़ दिये थे और सचित्त जल, पुष्पादि सम्बन्धी कार्य स्नात्रकार करते थे ।
इस क्रान्ति के प्रवर्तक कौन ? : :
यहां यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि प्रतिष्ठा - विधि में इस क्रान्ति के प्राद्यस्रष्टा कौन होंगे ? इस प्रश्न का उत्तर देने के पहिले हमको बारहवीं तेरहवीं शती की प्रतिष्ठाविषयक मान्यता पर दृष्टिपात करना पड़ेगा । बारहवीं शती के प्राचार्य श्री चन्द्रप्रभसूरि ने पौमिक मतप्रवर्तन के साथ ही " प्रतिष्ठा द्रव्यस्तव होने से साधु के लिए कर्त्तव्य नहीं", ऐसी उद्घोषणा की। उसके बाद तेरहवीं शती में ग्रागमिक आचार्य श्री तिलकसूरि ने नव्य प्रतिष्ठाकल्प की रचना करके प्रतिष्ठा विधि के सभी कर्त्तव्य श्रावक - विधेय ठहरा के चन्द्रप्रभसूरि की मान्यता को व्यवस्थित किया । इस कृति से भी हम चन्द्रप्रभ और श्री तिलक को प्रतिष्ठा विधि के क्रान्तिकारक कह नहीं सकते, किन्तु इन दोनों प्राचार्यों को हम "प्रतिष्ठा विधि के उच्छेदक" कहना का पसंद करेंगे। क्योंकि आवश्यक संशोधन के बदले इन्होंने प्रतिष्ठा के साथ का साधु का सम्बन्ध ही उच्छिन्न कर डाला है ।
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