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निबन्ध-निचय
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में तो पूर्वग्रन्थों का सहारा लिये विना चलता ही नहीं था। इस विषय में प्राचारदिनकर ग्रन्थ स्वयं साक्षी है। इसमें जो कुछ संग्रह किया है वह सब चैत्यवासियों और दिगम्बर भट्टारकों का है, वर्धमानसूरि का अपना कुछ भी नहीं है।
प्रतिष्ठा-विधियों में क्रान्ति का प्रारम्भ :::
प्रतिष्ठा-विधियों में लगभग चौदहवीं शती से क्रान्ति प्रारम्भ हो गयी थी। बारहवीं शती तक प्रत्येक प्रतिष्ठाचार्य विधि-कार्य में सचित्त जल, पुष्पादि का स्पर्श और सुवर्ण मुद्रादि धारण अनिवार्य गिनते थे, परन्तु तेरहवीं शती और उसके बाद के कतिपय सुविहित प्राचार्यों ने प्रतिष्ठा-विषयक कितनी ही बातों के सम्बन्ध में ऊहापोह किया और त्यागी गुरु को प्रतिष्ठा में कौन-कौन से कार्य करने चाहिए इसका निर्णय कर नीचे मुजव घोषणा की
"थुइदाग १ मंतनासो २; पाहवरणं तह जिरणाणं ३ दिसिबंधो ४ । नित्तुम्मीलण ४ देसण, ६ गुरु अहिगारा इहं कप्पे ॥"
। अर्थात्- 'स्तुतिदान याने देववन्दन करना स्तुतियां बोलना १, मन्त्रन्यास अर्थात् प्रतिष्ठाप्य प्रतिमा पर सौभाग्यादि मन्त्रों का न्यास करना २, जिनका प्रतिमा में आह्वान करना ३, मन्त्र द्वारा दिग्बंध करना ४, नेत्रोन्मीलन याने प्रतिमा के नेत्रों में सुवर्णशलाका से अंजन करना ५, प्रतिष्ठाफल प्रतिपादक देशना (उपदेश) करना। प्रतिष्ठा-कल्प में उक्त छः कार्य गुरु को करने चाहिए।'
- अर्थात्-~इनके अतिरिक्त सभी कार्य थावक के अधिकार के हैं। यह व्याख्या निश्चित होने के बाद सचित्त पुष्पादि के स्पर्श वाले कार्य त्यागियों ने छोड़ दिये और गृहस्थों के हाथ से होने शुरु हुए। परन्तु पन्द्रहवीं शती तक इस विषय में दो मत तो चलते ही रहे, कोई प्राचार्यविधिविहित अनुष्ठान गिन के सचित्त जल, पुष्पादि का स्पर्श तथा स्वर्ण मुद्रादि धारण निर्दोष गिनते थे, तब कतिपय सुविहित प्राचार्य उक्त कार्यों
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