________________
२०६ :
निबन्ध-निचय
"यदागमः" इत्यादि शब्दप्रयोगों द्वारा जिसका आदर किया है उस मूल प्रतिष्ठा-गम में सुवर्णमुद्रा अथवा सुवर्णकंकण धारण करने का सूचन तक नहीं है। पादलिप्तसूरि ने जिस मुद्रा-कंकण-परिधान का उल्लेख किया है वह तत्कालीन चैत्यवासियों की प्रवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। पादलिप्तसूरिजी
आप चैत्यवासी थे या नहीं इस चर्चा में उतरने का यह उपयुक्त स्थल नहीं है, परन्तु इन्होंने प्राचार्याऽभिषेक विधि में तथा प्रतिष्ठा-विधि में जो कतिपय बातें लिखी हैं वे चैत्यवासियों की-पौषधशालाओं में रहने वाले शिथिलाचारी साधुओं की हैं, इसमें तो कुछ शंका नहीं है। जैन सिद्धान्त के साथ इन बातों का कोई सम्बन्ध नहीं है। प्राचार्याऽभिषेक के प्रसंग में इन्होंने भावी प्राचार्य को तैलादि विधि-पूर्वक अविधवा स्त्रियों द्वारा वर्णक (पीठी) करने तक का विधान किया है। यह सब देखते तो यही लगता है कि श्री पादलिप्तसूरि स्वयं चैत्यवासी होने चाहिए। कदापि ऐसा मानने में कोई आपत्ति हो तो न मानें फिर भी इतना तो निर्विवाद है कि पादलिमसूरि का समय चैत्यवासियों के प्राबल्य का था। इससे इनकी प्रतिष्ठा-पद्धति आदि कृतियों पर चैत्यवासियों की अनेक प्रवृत्तियों की अनिवार्य छाप है । साधु को सचित्त जल, पुष्पादि द्रव्यों द्वारा जिन-पूजा करने का विधान जैसे चैत्यवासियों की प्राचरणा है, उसी प्रकार से सुवर्णमुद्रा, कंकणधारणादि विधान ठेठ चैत्यवासियों के घर का है, सुविहितों का नहीं ।
श्रीचन्द्र, जिनप्रभ, वर्धमानसूरि स्वयं चैत्यवासी न थे, फिर भी वे उनके साम्राज्यकाल में विद्यमान अवश्य थे। इन्होंने प्रतिष्ठाचार्य के लिए मुद्रा कंकण धारण का विधान लिखा इसका कारण श्रीचन्द्रसूरिजी ग्रादि की प्रतिष्ठा-पद्धतियां चैत्यवासियों की प्रतिष्ठा-विधियों के आधार से बनी हुई हैं, इस कारण से इनमें चैत्यवासियों की आचरणाओं का आना स्वाभाविक है। उपर्युक्त आचार्यों के समय में चैत्यवासियों के किले टूटने लगे थे फिर भी वे सुविहितों द्वारा सर नहीं हुए थे। चैत्यवासियों के मुकाबिले में हमारे सुविहित आचार्य बहुत कम थे। उनमें कतिपय अच्छे विद्वान् और ग्रन्थकार भी थे, तथापि उनके ग्रन्थों का निर्माण चैत्यवासियों के ग्रन्थों के आधार से होता था। प्रतिष्ठा-विधि जैसे विषयों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org