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निबन्ध - निचय
: २१३
मन्त्रन्यास होने न होने की भी प्रतिष्ठाचार्य को कुछ चिन्ता नहीं । उनके पास क्रियाकारक रूप प्रतिनिधि तो होता ही है, जब प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठाविधि को ही नहीं जानता तब तद्गत स्वगच्छ की परम्परा के ज्ञान की तो आशा ही कैसी ? हमारे गच्छ के ही एक प्रतिष्ठाचार्य हैं, उनकी सुविहित साधु में परिगणना है । उनको प्रतिष्ठाचार्य बनकर सोने का कड़ा हाथ में पहन कर अंजनशलाका करने की बड़ी उत्कंठा रहती है। जहां-तहां बगैर जरूरत अंजनशलाकाएँ तैयार करा कर सोने का कड़ा पहिन के वे अपने आपको धन्य मानते हैं । परन्तु उस भले मनुष्य को इतनी भी जानकारी नहीं है कि सुविहित तपागच्छ की इस विषय में मर्यादा क्या है और वे स्वयं कर क्या रहे हैं ?
प्रतिमाओं में कला प्रवेश क्यों नहीं होता ? : : :
लोग पूछा करते हैं कि पूर्वकालीन अधिकांश प्रतिमाएँ सातिशय होती हैं तब आजकल की प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ प्रभाविक नहीं होतीं, इसका कारण क्या होगा ? पहिले से आजकल विधि-विषयक प्रवृत्तियां तो बढ़ी हैं, फिर आधुनिक प्रतिमानों में कला प्रवेश नहीं होता इसका कुछ कारण तो होना ही चाहिए ।
प्रश्न का उत्तर यह है कि आजकल की प्रतिमाओं में सातिशयिता न होने के अनेक कारणों में से कुछ ये हैं
(१) प्रतिमाओं में लाक्षणिकता होनी चाहिए जो आज की अधिकांश प्रतिमाओं में नहीं होती । केवल चतुःसूत्र वा पंचसूत्र मिलाने से ही प्रतिमा ग्रच्छी मान लेना पर्याप्त नहीं है । प्रतिमानों की लाक्षणिकता की परीक्षा बड़ी दुर्बोध है, जो हजार में से एक दो भी मुश्किल से जानते होंगे ।
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(२) जिन प्रतिष्ठा - विधियों के आधार से आजकल अंजनशलाकाएँ कराई जाती हैं, वे विधि- पुस्तक अशुद्धि - बहुल होते हैं । विधिकार अथवा प्रतिष्ठाकार ऐसे होशियार नहीं होते जो प्रशुद्धियों का परिमार्जन कर शुद्ध विधान करा सकें। जैसा पुस्तक में देखा वैसा बोल गये और विधि
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