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निबन्ध-मिचय
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जाती है। यहां एक शंका को अवकाश मिलता है कि उक्त श्री गुणरत्नसूरिजी तथा श्री वर्धमानसूरिजी का कथन "प्रतिष्ठाविधि" तथा "प्रतिष्ठाकरण" विषयक है तो भले ही "प्रतिष्ठा"-"जिनबिम्ब-स्थापना" प्राचार्यादि कोई भी कर सकते हों पर अंजनशलाका-नेत्रोन्मीलन तो आचार्य ही करते होंगे? इस शंका का समाधान यह है कि प्राचार्य की हाजरी में प्राचार्य, उनके अभाव में उपाध्याय, उपाध्याय के अभाव में पदस्थ साधु और पदस्थ साधु की भी अनुपस्थिति में सामान्य रत्नाधिक साधु और साधु के अभाव में जैन ब्राह्मण अथवा क्षुल्लक भी नेत्रोन्मीलन कर सकते हैं। गुणरत्नसूरि तथा वर्धमानसूरि की प्रतिष्ठा-विधियां वास्तव में अंजनशलाका की विधियां हैं, इसलिये इनका कथन स्थापना-प्रतिष्ठा विषयक नहीं किन्तु अंजनशलाका-प्रतिष्ठा विषयक है। क्योंकि प्रतिमा को नेत्रोन्मीलन पूर्वक पूजनीय बनाना यही खरी प्रतिष्ठा है, जब कि पूर्व-प्रतिष्ठित प्रतिमा को अासन पर विधि-पूर्वक विराजमान करना यह "स्थापनप्रतिष्ठा" मानी जाती है । गुणरत्नसूरि और वर्धमानसूरि की प्रतिष्ठा-विधियाँ अंजनशलाकाप्रतिष्ठा का विधान-प्रतिपादन करती हैं न कि स्थापनाप्रतिष्ठा का। इससे सिद्ध होता है कि वे "प्रतिष्ठा" कारक के विषय में जो निरूपण करते हैं वह अंजनशलाकाकार को ही लागू होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि अंजनशलाकाकार योग्यता प्राप्त किया हुआ साधु भी हो सकता है और वह "प्रतिष्ठाचार्य' कहलाता है। प्रतिष्ठाचार्य की योग्यता :::
प्रतिष्ठाचार्य को शारीरिक और बौद्धिक योग्यता के विषय में प्राचार्य श्री पादलिप्तसूरि अपनी प्रतिष्ठापद्धति में (निर्वाणकलिकान्तर्गत में) नीचे मुजब निरूपण करते हैं
" सूरिश्चार्यदेशसमुत्पन्नः, क्षीणप्रायकर्ममलश्च , ब्रह्मचर्यादिगुणगणालंकृतः, पञ्चविधाचारयुतः, राजादीनामद्रोहकारी, श्रुताध्ययनसंपन्नः, तत्त्वज्ञः, भूमि-गृह-वास्तु-लक्षणानां ज्ञाता, दीक्षाकर्मणि प्रवीणः; निपुणः सूत्रपातादिविज्ञाने, स्रष्टा सर्वतोभद्रादिमण्डलानाम्, असमः प्रभावे, आलस्यवर्जितः; प्रियंवदः, दीनानाथवत्सलः सरलस्वभावो, वा सर्वगुणान्वितश्चेति ।"
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