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________________ २०६ : निबन्ध-निचय अर्थात्-'प्रतिष्ठाचार्य प्रार्य देशजात १, लघुकर्मा २, ब्रह्मचर्यादि गुणोपेत ३, पंचाचारसंपन्नः ४, राजादि सत्ताधारियों का अविरोधी ५, श्रुताभ्यासी ६, तत्त्वज्ञानी ७, भूमिलक्षण-गृहवास्तुलक्षणादि का ज्ञाता ८, दीक्षाकर्म में प्रवीण ६, सूत्रपातादि के विज्ञान में विचक्षण १०, सर्वतोभद्रादि चक्रों का निर्माता ११, अतुल प्रभाववान् १२, आलस्यविहीन १३, प्रिय वक्ता १४, दीनानाथ वत्सल १५, सरलस्वभावी १६, अथवा मानवोचित सर्व-गुण-संपन्न १७ । प्रतिष्ठाचार्य के उक्त १७ गुणों में नम्बर ३, ४, ६, ७, ८, १०, ११ और १३ ये गुण विशेष विचारणीय हैं। क्योंकि आजकल के अनेक स्वयंभू प्रतिष्ठाचार्यों में इनमें से बहुतेरे गुण होते नहीं हैं। ब्रह्मचर्य, पंचाचार संपत्ति, श्रुताभ्यास, तत्त्वज्ञातृत्व, सूत्रपातादि विज्ञान, भूमिलक्षणादि वास्तुविज्ञान, प्रतिष्ठोपयोगी चक्रनिर्माणकला और अप्रमादिता ये मौलिक गुण तो प्रतिष्ठाचार्य में होने ही चाहिये। क्योंकि ब्रह्मचर्य तथा पंचाचार संपत्तिविहीन के हाथों से प्रतिष्ठित प्रतिमा में प्रायः कला प्रकट नहीं होती। शास्त्र-ज्ञान-हीन और तत्त्व को न जानने वाला प्रतिष्ठाचार्य पग-पग पर प्रतिष्ठा के कार्यों में शंकाशील बनकर अज्ञानतावश विधिवपरीत्य कर बैठता है, परिणामस्वरूप प्रतिष्ठा सफल नहीं हो सकती। भूमिलक्षणादि विज्ञान से शिल्प, सूत्रपातादि विज्ञान से ज्योतिष और चक्रनिर्माण से प्रतिष्ठा-विधि शास्त्र का उपलक्षरण समझना चाहिए। शिल्पशास्त्रज्ञाता प्रतिष्ठाचार्य ही प्रासाद, प्रतिमा, कलश दंडादिगत शुभाशुभ लक्षण और गुण-दोष जान सकता है। ज्योतिष शास्त्रवेत्ता प्रतिष्ठाचार्य ही प्रतिष्ठा-सम्बन्धी प्रत्येक कार्य-अभिषेक, अधिवासना, अंजनशलाका, बिबस्थापना आदि कार्य शुभलग्न नवमांशादि षड्वर्गशुद्ध समय में कर सकता है और प्रतिष्ठाविधिशास्त्र का ज्ञाता तथा अनुभवी प्रतिष्ठाचार्य ही प्रतिष्ठा-प्रतिबद्ध प्रत्येक अनुष्ठान को कुशलता-पूर्वक निर्विघ्नता से कर तथा करा सकता है और अप्रमादिता तो प्रतिष्ठाचार्य के लिए एक अमूल्य गुण है। अप्रमादी प्रतिष्ठाकारक ही अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर सकता है। प्रमादी विद्यासाधक ज्यों अपने कार्य में सफल नहीं होता, वैसे प्रमादी प्रतिष्ठाचार्य भी अपने कार्य में सफल नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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