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प्रतिष्ठाचार्य
प्रतिष्ठा-विधियों-कल्पों में प्रतिष्ठा-कारक प्राचार्य, उपाध्याय, गरिण, अथवा साधु को “प्रतिष्ठाचार्य" इस नाम से सम्बोधित किया जाता है। तथा श्रीगुणरत्नसूरिजी ने अपने प्रतिष्ठाकल्प के प्रथम श्लोक में लिखा है
"महावीरजिनं नत्वा, प्रतिष्ठाविधिमुत्तमम् । यति-श्रावक-कर्तव्य-व्यक्त्या वक्ष्ये समासतः ।।१॥"
अर्थात्-'महावीर जिन को नमस्कार करके साधु-श्रावक कर्तव्य के विवेक के साथ उत्तम प्रतिष्ठाविधि का संक्षेप से निरूपण करूँगा।
आचार्य श्री गुणरत्न सूरिजी अपने उक्त श्लोक में “सूरि-श्रावक कर्तव्य' ऐसा निर्देश न करके ''यति-श्रावक कर्त्तव्य" ऐसा उपन्यास करते हैं, इससे ध्वनित होता है कि प्रतिष्ठाकर्त्तव्य आचार्य मात्र का नहीं है, किन्तु मुनि सामान्य का है, जिसमें प्राचार्यादि सब आ जाते हैं। विधि-विधान के प्रसंग पर भी स्थान-स्थान पर प्रयुक्त “इति गुरुकृत्यं” इत्यादि उल्लेखों पर से साबित होता है कि प्रतिष्ठाकर्त्तव्य गुरु सामान्य का है, न कि प्राचार्य मात्र का। आचारदिनकर में खरतर श्री वर्धमानसूरिजी प्रतिष्ठाकारक के सम्बन्ध में कहते हैं
"प्राचार्यः पाठकैश्चैव, साधुभिनिसक्रियैः ।
जैनविप्रेः क्षुल्लकैश्च, प्रतिष्ठा क्रियतेऽर्हतः ॥१॥" अर्थात्-'आहती प्रतिष्ठा प्राचार्यों, उपाध्यायों, ज्ञानक्रियावान् साधुओं, जैन ब्राहारणों और क्षुल्लकों (साधु-धर्म के उमेदवारों) द्वारा की
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