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निबन्ध-निचय
७. उपसंहार :
मारवाड़ में हजारों प्राचीन जैनमूर्तियां हैं, परन्तु ज्ञात मूर्तियों में दशवीं सदी के पहले की बहुत कम होंगी, जो कि विक्रम की पांचवीं सदी के पहले ही यह प्रदेश जैन धर्म का क्रीड़ास्थल बन चुका था और छठी, सातवीं तथा आठवीं सदी तक यह देश जैन धर्म का केन्द्र बना हुआ था। इस हिसाब से उक्त पिण्डवाड़ा की मूर्तियों से भी यहां प्राचीन मूर्तियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होनी चाहिए थीं। परन्तु हमारे अनुसंधान में वैसी मूर्तियों का अभी तक पता नहीं लगा, इसका कारण प्रायः राज्यक्रान्तियां हो सकती हैं। इस भूमि में आज तक कई जातियां राज्याधिकार चला चुकी हैं। राज्यसत्ता एक वंश से दूसरे वंश में यों ही नहीं जाती, कई प्रकार की धमालों और घातक युद्धों के अन्त में नई राज्यसत्ता स्थापित हो सकती है। इस प्रकार के कष्टमय राज्यक्रान्तिकाल में प्रजा का अपने जानमाल की रक्षा के लिये इधर-उधर हो जाना अनिवार्य हो जाता है । जिस समय प्राणों की रक्षा होनी भी मुश्किल हो जाती है उस समय मूर्तियों और मन्दिरों की रक्षा की तो बात ही कैसी ? लोग मूर्तियां जमोन में गाड़कर जहां तहां भाग जाते, उनमें से जो बहुत दूर निकल जाते वे प्रायः वहीं ठहर जाते थे, जो निकटवर्ती होते शांति स्थापित होने पर फिर पा जाते थे। पर वे भी त्रास से इतने भयभोत हो जाते थे कि उनकी मनोवृत्तियां स्थिर नहीं रहती । राज्य की तरफ से कब बखेड़ा उठेगा और कब भागना पड़ेगा ये ही विचार उनके दिमागों में घूमते रहते । परिणामस्वरूप भूगर्भशायी की हुई मूर्तियां निकालने का उन्हें उत्साह नहीं होता, मूर्तिविरोधियों की चढ़ाइयों के समय तो वे मूर्तियों को भूगर्भ में रखने में हो लाभ समझते । राज्य-विप्लवों की शान्ति और मनुष्यों की मनोवृत्तियां स्थिर होते होते पर्याप्त समय बीत जाता । मूर्तियों को जमीन में सुरक्षित करने वाले या उन स्थानों की जानकारी रखने वाले प्रायः परलोक सिधार जाते, फलतः पिछले भाविक गृहस्य नयी मूर्तियां और मन्दिर बनवाकर अपना भक्तिभाव सफल करते और भूमिशरण की हुई प्राचीन मूनियां सदा के
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