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________________ निबन्ध-निचय : २०१ जा सकते । प्रथम पद्य में मूर्ति के दर्शन की आवश्यकता की सूचना है, दूसरे पद्य में मूर्तियुगल का निर्माण करवाने वाले गृहस्थों के नाम हैं जो घिस जाने से पढ़े नहीं जा सके । उनमें से सिर्फ एक 'यशोदेव' नाम स्पष्ट पढ़ा गया है । तीसरी पंक्ति में मूर्तिदर्शन से होने वाले लाभों की प्राप्ति की प्रार्थना है । चौथी पंक्ति में प्रतिष्ठा का संवत् है और उसके नीचे पांचवीं पंक्ति में मूर्ति बनाने वाले शिल्पी की प्रशंसा लिखी गई है । मूल लेख की अक्षरश: नकल नीचे मुजब है १. ॐ “नीरागत्वादिभावेन, सर्वज्ञत्वविभावकं । ज्ञात्वा भगवतां रूपं जिना - नामेव पावनं । द्रो वक २. " यशादेव देव ६. मूल लेख और उसका अर्थ : ३. “भवशत परम्पराजित - गुरुकर्म्मरसो (जो ) त.... यह जोड़ी बनवाई | 'भिः । ४. “संवत् ७४४।” ५. " साक्षात्पितामहेनेव विश्वरूपविधायिना । शिल्पिना शिवनागेन, कृतमेतज्जिनद्वयम् ॥" , ...रिहं जैन " कारितं युग्ममुत्तमं ॥” 'वर दर्शनाय शुद्ध- सज्ज्ञानचरण लाभाय ।। ” अर्थ - ' वीतरागता आदि गुणों से सर्वज्ञत्व सूचित करने वाली जिन भगवन्तों की पवित्र मूर्ति ही है । ( ऐसा ) जानकर यशोदेव • आदि ने जिनमूर्तियों की Jain Education International सैंकड़ों भव परम्पराम्रों में उपार्जन किये कठिन कर्म - रज" चारित्र के लाभ के लिए ( हो ) । ( के नाश के लिए तथा ) सम्यग्दर्शन, शुद्ध ज्ञान और विक्रम सं० ७४४ में (इस मूर्तियुगल की प्रतिष्ठा हुई) साक्षात् ब्रह्मा की तरह सर्व प्रकार के रूपों (मूर्तियों) को बनाने वाले शिल्पी ( मूर्ति - निर्माता स्थपति) शिवनाग ने ये दोनों जैन मूर्तियां बनाई ।' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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