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निबन्ध-निचय
केशोर्णा
२. अधिकृत मूर्तियों को दूसरी विशिष्टता यह है कि इनके मस्तक ( केशों के मणिकों) से भरे हुए हैं, जब कि दशवीं शताब्दी और इसके बाद की जिनमूर्तियों के मस्तक पर ज्यादा से ज्यादा और कम से कम ३ मणिक मालाएँ देखी जाती हैं, तब प्रस्तुत मूर्तियों की ऊँची शिखाएँ भी मरिणकों से परिपूर्ण हैं । जवान प्रादमी का शिर जैसा घुंघरवाले बालों से सुशोभित होता है, ठीक वैसे ही इन मूर्तियों के शिर हैं ।
३. इनमें से कुछ खड़ी मूर्तियों के स्कन्धों पर स्पष्ट रूप से जटायें रखी हुई प्रतीत होती हैं, यद्यपि किन्हीं - किन्हीं अर्वाचीन मूर्तियों के स्कन्धों पर भी जटाओं के आकार देखे जाते हैं । पर वे आकार जटाओं के न होकर कानों के निचले भाग के पास स्कन्धों पर एक दूसरी से चिपटी हुई तीन गोलियां बना दी जाती हैं जिनको जटा मानकर उनके आधार पर वह मूर्ति ऋषभदेव की कही जाती है । परन्तु इन मूर्तियों के स्कन्धों पर की जटायें हूबहू जटायें होती हैं । मूल में एक एक होती हुई भी कुछ आगे जाकर वह तीन तीन भागों में बंट जाती है, जिससे समूचा दृश्य हवा से बिखरी हुई एक जटा सा सुन्दर दीखता है । यह इन मूर्तियों की तीसरी विशिष्टता है ।
४. प्रस्तावित मूर्तियों की चौथी विशिष्टता यह है कि वे भीतर से पोली हैं । प्राज तक जितनी भी सर्वधातुमयी मूर्तियां हमने देखीं सब ठोस ही ठोस देखीं, परन्तु उक्त छोटी-बड़ी सभी कायोत्सर्गिक मूर्तियां भीतर से पोली हैं जो लाख जैसे हल्के लाल पदार्थ से भरी हुई हैं ।
५. मूर्ति के लेख का परिचय :
इन सब में से पूर्वोक्त एक ही बड़ी कायोत्सर्गिक मूर्ति के पादपीठ पर पांच पंक्ति का एक पद्यबद्ध लेख है । लेख को प्रारम्भ “ ॐ कार" से किया गया है, दो श्लोक हैं। तीसरा ग्रार्यावृत्त है, लेख का चौथा पद्य श्लोक है । प्रत्येक पंक्ति में पूरा एक एक पद्य या गया है। प्रथम पंक्ति में द्वितीय पद्य के ४ अक्षर आ गये हैं । इनमें से प्रथम तथा चतुर्थ पद्य तो स्पष्ट पढ़े जा सकते हैं, परन्तु इनके विचले दो पद्य अधिक घिस जाने से ठीक पढ़े नहीं
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