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निबन्ध-निचय
दशा में विद्यमान हैं, जिनमें एक देवी क्षेमार्या" का प्राचीन मन्दिर भी है।
प्रस्तुत धातु-मूर्तियाँ विक्रम सं० १९५६ तक वसन्तगढ़ के जैन मंदिर के भूमिगृह में थीं, जिनका किसी को पता नहीं था। परन्तु उक्त वर्ष में जो कि एक भयंकर दुष्काल का समय था, धन के लोभ से अथवा अन्य किसी कारण से पुराने खण्डहरों की तलाश करने वालों को इन जैन मूर्तियों का पता लगा। उन्होंने तीन-चार मूर्तियों के अङ्ग तोड़कर उनकी परीक्षा करवाई और उनके सुवर्णमय न होने के कारण उन्हें वहीं छोड़ा दियो । बाद में धीरे धीरे यह बात निकटस्थ गांवों वालों के कानों पहुंची, तब पिण्डवाड़ा आदि के जैन श्रावकों ने वहां जाकर छोटी-बड़ी अखण्ड और खंडित सभी धातु-मूर्तियां पिण्डवाड़े ला करके और उनमें जो जो पूजने योग्य थी उन्हें ठीक करवा कर महावीर स्वामी के मंदिर के गूढ मंडप में और पिछली बड़ी देहरी के मंडप में स्थापित की जो अभी तक वहीं पूजी जाती हैं।
३. मूर्तियों की वर्तमान अवस्था : यों तो वसंतगढ से आई हुई मूर्तियों की संख्या बहुत है, परन्तु उनमें से अधिकांश तीन तीथियां, पंच तीथियां और चतुर्विंशतियां दशवीं ग्यारहवीं और बारहवीं सदी की होने से इस लेख में उनका परिचय देने की विशेष आवश्यकता नहीं । जो जो मूर्तियां नवम-शताब्दी के पूर्वकाल की हैं उन्हीं का परिचय कराना यहां योग्य समझा गया है ।
जिन्हें मैं आठवीं सदी की मूर्तियां कहता हूँ वे कुल पाठ हैं। उनमें तीन अकेली' तीन त्रितीथियां और दो अकेली कार्योत्सर्गिक मूर्तियां हैं।
इनमें से पहलो तीन अकेली मूर्तियाँ लगभग पौन फुद्र के लगभग ऊंची हैं और बिल्कुल ही खंडित तथा बेकार बनी हुई हैं। पहले ये भूहरे में रख
१. पहले तमाम मूर्तियां सपरिकर ही होती थीं इस हिसाब से ये मूर्तियां भी पहले सपरिकर ही होगी और बाद में परिकरों से जुदा पड़ जाने से अकेली हुई होंगी ऐस
प्रनमान है।
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